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Women’s Right And Empowerment: महिलाओं के खास अधिकारों की बात, हर स्त्री को है जानना जरूरी

देश की कुल आबादी में महिलाओं की जनसंख्या आधी है। आज देश के सतत विकास में महिलाओं की भूमिका हर क्षेत्रों में अग्रणी है।

Women’s Right And Empowerment: देश की आधी आबादी का नेतृत्व करती हैं महिलाएं, अब अधिकारों और समानता पर पहल है जरूरी 

क्या वास्तव में महिलाओं में समानता का बोध हो रहा है? क्या महिलाओं को मिल चुके हैं उनके सारे अधिकार? हमारे समाज में ‘इंटरनेशनल वीमंस’ डे भी मनाता है, मतलब अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस। हम लोग बड़े ही हर्ष और गर्व के साथ 26 अगस्त के दिन महिला समानता दिवस मनाते हैं। हम दुनिया को यह बताने का प्रयास करते हैं कि महिलाओं के प्रति समानता को लेकर कोई भेदभाव नहीं होता है। हमारे भारत में महिलाओं को ‘जगत जननी’ कहा गया है। यह वही 26अगस्त 1971 का दिन था जब संयुक्त राज्य अमेरिका में महिलाओं को पुरुषों की भांति अपने मत को प्रयोग करने की आजादी मिली।

फिर वहीं से महिला समानता दिवस का नींव दिखता है। महिलाओं के प्रति सम्मान की भावना में उन्हें ‘अर्द्धांगिनी ‘ तक कहा जाता है। इस ‘अर्द्धांगिनी’ शब्द की महत्ता-गरिमा और अर्थ को आदिकाल से ही महिला समाज ने पीड़ा और वेदना को अपने मन के भीतर दमन करते हुए भी बनाए रखा। महिलाओं के अधिकारों, भावनाओं और उनकी कौशलता को उपेक्षित कर कोई भी समाज न तो प्रगति कर सकता है और नहीं समाज में कोई मिशाल पेश कर सकता है। कितना अच्छा लगता है ‘समानता’ जैसा शब्द सुनने में! ‘समानता’ का अर्थ बराबरी होता है। जिसने हमें पैदा किया, जिसने कभी माँ, तो कभी बहन तो कभी पत्नी के रूप में सदा से पुरुषों के लिए त्याग किया।

इन महिलाओं ने जिन्हें जन्म दिया, जिनके लिए सदियों से न सिर्फ अपने ‘पीहर’ का घर छोड़, एक ऐसे पराए घर को स्वीकार किया जिन्हें वह पहले कभी जानती भी न थी। इन महिलाओं को समानता का बोध और अधिकार के लिए मशक्कत करनी पड़े, संघर्ष करना पड़े, ये कहां तक उचित है? देश की कुल आबादी में महिलाओं की आधी हिस्सेदारी है। जब इस देश में जनसंख्या के आधार पर अधिकारों और हिस्सेदारी की बात की जाती है तो उस हिसाब से महिलाओं को उनके अधिकार से वंचित कैसे रखा जा सकता है? यह बहुत ही सोचनीय और विचारणीय बात है। अक्सर देखा गया है कि अधिकारों और बराबरी की बात करने वाले दलों व नेताओं में उस समय चुप्पी देखने को मिलती है जब सत्ता में आने के बाद देश की आबादी को पूर्ण अधिकार, विश्वास, सुरक्षा और समानता की बात आती है।

प्रश्न है कि क्या वाकई में महिलाओं को समानता की स्वतंत्रता और अधिकार मिल पाए हैं?

मेरे ख्याल से नहीं। अपने भारत में फिर भी स्थिति अच्छी ही है लेकिन अभी खामियाँ यहां भी है। ‘स्वतंत्रता’ और ‘अधिकार’ का अर्थ केवल नौकरियों और निर्वाचन में भाग लेने तक ही तो सीमित नहीं होता है। महिला गरिमा को उच्च स्थान देने के लिए प्रयास करना चाहिए। उन्हें हम पुरूषों से सुरक्षा का अहसास चाहिए। चाहे वो अपने घर में हो, बाहर हो, कार्यस्थल पर हो अथवा बाजार या कॉलेज, इत्यादि जगहों पर हों। उन्हें इस बात की मानसिक और दिली तसल्ली चाहिए कि वो एक महिला के रूप में उतना ही सुरक्षित और स्वतंत्र है, जितना कि एक पुरूष।

हमें महिलाओं की क्षमता, कार्यकुशलता, प्रतिभा तथा उनके व्यक्तित्व को निष्पक्ष रूप से स्वीकार करना होगा। रानी लक्ष्मीबाई ने जहां अपने अद्भुत रणकौशल का परिचय दिया तो वहीं हम महादेवी वर्मा, मनु भंडारी, सुमित्रा कुमारी चौहान तथा अमृता प्रीतम जैसी साहित्यिक नक्षत्र के भी प्रमाण देखते हैं।अभी हाल- फिलहाल हमारे देश की राष्ट्रपति पद पर सुशोभित माननीय श्रीमती द्रौपदी मूर्मू भी एक महिला ही हैं। आज प्रबंधन, व्यापार, पत्रकारिता, तकनीकी, विज्ञान, अध्यात्म , पत्रकारिता तथा खेल हर जगह तो महिला शक्ति का दर्शन हो ही रहा है। कभी टीवी पत्रकारिता में नीलम शर्मा ने महिलाओं को बतौर पत्रकार प्रोत्साहित किया तो वहीं अंतरिक्ष की उड़ान भरने वाली कल्पना चावला भी एक महिला ही थीं।

आज हम बड़ी कंपनियों के शीर्षस्थ पदों पर इंदिरा नूई, लीना नायर, शर्मिष्ठा दुबे, अंजली सूद, रोशनी नाडार, जयश्री उलाल और किरन मजूमदार शॉ जैसे विद्वान महिलाओं को बैठे हुए देख सकते हैं। गीता गोपीनाथन विश्व की एक ताकतवर संस्था आइएमएफ में पहली डेप्यूटी मैनेजिंग डायरेक्टर के पद पर सुशोभित हैं। वहीं खेलों की बात करें तो पी टी उषा, मिताली राज, एम मैरीकॉम, निखत ज़रीन, गीता फोगाट, भवानी देवी, सायना नेहवाल, सानिया मिर्जा जैसे और भी बड़े नाम हैं। पिछले कुछ वर्षों में नौकरशाही में तो महिलाओं ने गजब ही कर दिया है। यूपीएससी, आइआइटी, आइआइएम, एम्स, चार्टर्ड अकाउंटेंसी से लेकर हर शैक्षणिक क्षेत्रों में लड़कियाँ, लड़कों को सालों से तगड़ा टक्कर देती आ रही हैं।

राजनीति में महिलाओं ने बढ़ चढ़कर योगदान दिया है

राजनैतिक नेतृत्व की कुशलता की चर्चा करेंगे तो भूतपूर्व प्रधानमंत्री स्व इंदिरा गांधी हों या भूतपूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा सिंह पाटिल हों अथवा स्व सुषमा स्वराज,स्व जयललिता, स्व शीला दीक्षित,निर्मला सीतारमण तो अपने उत्तर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री सुश्री मायावती और पश्चिम बंगाल की वर्तमान मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इन सभी प्रतिभाओं ने अपने अदम्य साहस एवं राजनैतिक नेतृत्व से विपक्षियों को न सिर्फ लोहे के चने चबाने के लिए विवश किया बल्कि पुरुषवादी सत्ता और स्थायित्व को चुनौती भी दिया। मेनका गांधी की राजनीतिक कुशलता और योगदान को कैसे उपेक्षित किया जा सकता है?

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मेनका गांधी राजनीति में अपनी एक सशक्त आवाज के रूप में पहचान बना चुकी हैं। आज पश्चिम बंगाल की वर्तमान मुख्यमंत्री सुश्री ममता बनर्जी राजनीति में एक बड़ा नाम हैं। तो भला अब किस योग्यता एवं कौशल की कमी है इन जननियों में?महिला समानता और उनके अधिकारों पर सिर्फ बात करने से कुछ नहीं होगा, बल्कि दो कदम आगे बढ़कर उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर, उनके नेतृत्व को स्वीकार करना होगा। महिलाओं के भीतर सामाजिक सुरक्षा की भावना को उत्पन्न करना होगा। यह ऐसा देश है जहां पिता से पहले माता को वंदन किया गया है, जहां मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम जी से पहले माता सीता का उच्चारण किया जाता है, जहां कन्हैया से पहले राधा पुकारी जाती हैं तो जहां महादेव भगवान शिव से पहले मां दुर्गा जी को आदिशक्ति का स्थान प्राप्त है।

यह भारत की संस्कृति ही है कि जहां मां के चरणों में स्वर्ग देखा जाता है, जहाँ स्त्रीयां अपने पीहर को छोड़ने के बाद एक अजनबी के लिए अपना सब कुछ त्याग दिया करती हैं और सात वचनों के पौराणिक मान्यता में जीवनभर के लिए बंधने को तैयार रहती हैं। एक जागरूक नागरिक के रूप में यह हमारा नैतिक कर्तव्य है कि हम महिला अधिकारों और समानता के लिए स्वयं पहल करें ताकि समाज में, समाज की आधी आबादी को सबल और प्रोत्साहन मिल सके। हो सकता है कि मेरे शब्दों से कुछ कट्टरवादी पुरूष आधिपत्य के पैरोकारों को चुभन हो लेकिन उनके इस चुभन में भी स्त्रीयों ने उनके लिए त्यागी होना स्वीकार किया। समानता की बात स्त्री समाज के लिए कुछ अधूरा – सा लगता है।

प्रेम की अगुवाई में स्त्रियों का कोई सानी नहीं हो सकता है। क्योंकि पुरूष के तुच्छ प्रेम की तृप्ति के लिए स्त्रियों ने ही सदैव समाज से, अपने परिवार से बगावत किया है। यह वही स्त्रीयां हैं जो विवाह एवं परंपरा के जंजीर से एक ऐसे पुरूष के साथ बंधने को तैयार रहती हैं जहां कभी दहेज के नाम पर तो कभी संस्कार में कमी के नाम पर शोषण, दमन एवं घृणा को न सिर्फ सहने के लिए बाध्य होती रही हैं, बल्कि अपने ख्वाबों की बलि चढ़ाकर अपने पति-परिवार के ख्वाबों को संजोने में ताउम्र लग जाती हैं। एक औरत को अबला समझने की भूल करना पाप है। एक और के ख्वाबों को कुचलकर, तिरस्कृत करना, उसके अधिकारों का दमन करना और उसे भोग-विलास की वस्तु समझना पाप नहीं बल्कि ‘महापाप’ है। इसे मर्दानगी नहीं बल्कि कायरता कहते हैं।

” शोचन्ति जामयो यत्र विनश्चयत्याशु तत्कुलम,

न शोचन्ति तु यत्रैता वर्धते तद्धि सर्वदा ”

अर्थात जिस कुल में पारिवारिक स्त्रियों को शोकग्रस्त रखा जाता है उस कुल की विनाश की संभावना प्रबल हो जाती है तथा उसका पतन तय है और जिस कुल में स्त्रियों को हर्ष एवं सुख प्राप्त होता है उस कुल में गरिमा और वैभव फैलने लगते हैं।महिला सशक्तिकरण ही समानतावादी दृष्टिकोण को संपूर्णता प्रदान कर सकता है। क्या स्त्री विमर्श पर प्रकाश डालना कोई गुनाह है? न जाने कैसी तापसी एवं विकृत मानसिकता का चलन चला है? जब मैं छोटा था तो अक्सर लड़कियों को ही गृहविज्ञान जैसे धांसू विज्ञान के क्षेत्र में बहुतायत मात्रा में शामिल होते देखता और सुनता था। गृहविज्ञान की ‘बाहुबली’ होती हैं ये लड़कियां।

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क्या कारण था कि लड़कियों को तथाकथित विज्ञान के नाम पर एक बार फिर जकड़ दिया जाता था? इस रोजगार परक विज्ञान में पुरुष नगण्य क्यों होते थे? क्या इस वैज्ञानिकता के लिए वे अयोग्य थे? खैर जो भी हो, अब लड़कियों ने भी अपने अंदर के क्रांति को प्रतिस्पर्धा के जंग में धकेल ही दिया है और धकेलने का परिणाम यह रहा कि उन्होंने धमाल मचाना ही शुरू कर दिया। पुरूष वर्ग को अपने दृष्टिकोण में जल्द से जल्द बदलाव लाना होगा तथा महिलाओं को केवल भोग-विलास, कामुकता के साधन और खिलौने के रूप में न देखकर उन्हें सह अस्तित्व के नजरिए में रखना होगा।

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गदपि गरीयसी “

अर्थात जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर हैं। मैं अक्सर सुनता हूं तथा विभिन्न महिलाओं से चर्चा के पश्चात निष्कर्ष प्राप्त करता हूँ कि अभी भी उनके दिल और दिमाग में एक अदृश्य भय बना रहता है जो कि उनकी अस्मिता, लज्जा और सुरक्षा के भाव को लेकर होता है। जब तक महिलाओं को आर्थिक रुप से सुदृढ़ीकरण नहीं किया जाता, जब तक उनके दिल में सुरक्षा की भावना को जागृत नहीं किया जाता, जब तक उन्हें कार्यस्थल पर सहजता का बोध नहीं होगा तथा जब तक उन्हें नकारात्मकता के दायरे से बाहर नहीं रखा जाता तब तक स्त्री समानता की बात करना एक ढोंग और एक ‘राजनैतिक नारे’ के सिवाय और कुछ भी नहीं है। सिर्फ “बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ” के नारे से काम नहीं चलने वाला बल्कि इसके लिए दृढ़ संकल्पित होना पड़ेगा तथा उनके अस्तित्व हेतु अनवरत प्रयास करना होगा। ” शिक्षा एक ऐसा हथियार है जिसके बल पर किसी भी युद्ध को बिना रक्तपात के जीता व समाप्त किया जा सकता है।” इस बात पर गौर करने की जरूरत है। ” जननी सुरक्षा अभियान ” को सिर्फ प्रचार करने से मूर्त रूप नहीं मिलेगा बल्कि इसका जागरण प्रत्येक परिवार में सफलतापूर्वक होना चाहिए। जब परिवार में जागरूकता को अधिकार समझा जाएगा तो समाज और राष्ट्र अपने आप सुदृढ हो जाएंगे।

महिला अधिकारों की बात होगी तो उन्हें कुछ आवश्यक और महत्वपूर्ण अधिकारों की सख्त जरुरत होती है

1- वर्किंग प्लेस पर सम्मान और समान पगार किसी भी वर्किंग प्लेस पर समान काम के लिए औरत और मर्द में किसी भी तरह का अंतर नहीं होना चाहिए। अगर किसी काम को महिला और पुरुष समान रूप से करते हैं तो मेहनताना भी समान होनी चाहिए। इसके अलावा महिलाओं को सम्मान- आदर की भावना से व्यवहार करनी चाहिए।

2- समाज में मिले सुरक्षा की भावना किसी भी समाज के लिए गर्व की बात नहीं होगी अगर उस समाज की आधी आबादी यानि कि महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार, छेड़छाड़ या कोई अन्य असामाजिक व्यवहार किया जाता है। जब हम अपने घर की बहु-बेटियों के साथ अच्छे व्यवहार कर सकते हैं तो फिर दूसरों के घरों की महिलाओं के साथ बुरा व्यवहार कैसे कर सकते हैं? महिलाओं की सुरक्षा और सम्मान के साथ कोई पक्षपात नहीं होना चाहिए।

3-: महिलाओं की प्रतिभा और नेतृत्व क्षमता पर विश्वास यह बात हर मर्द को गांठ बांध लेनी चाहिए कि आज महिलाएं उनसे किसी भी मामले या क्षेत्रों में पीछे नहीं हैं। महिलाओं ने अपनी प्रतिभा और लीडरशिप का डंका सारी दुनिया में बजाया है। ‘सिर्फ मैं ही बेस्ट हूं’ इस झूठे दंभ से हर पुरूष को बाहर निकलने की आवश्यकता है। देश की आधी आबादी अब लीडरशिप को अपने हाथ में लेने के लिए बेकरार है।

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