चलिए याद करते हैं कबीरदास के भूले हुए दोहे
कबीरदास अपनी सदी के बहुत ही महान कवि थे। उन्होंने ऐसी बाते कही जो आज के वक़्त में हम सभी के लिए सीखना और समझना बहुत ही ज़रूरी है। उनके दोहे और कविताएं ऐसी है जो अब किताबो में ही सिमट के रह गयी है। इसिलए ज़रूरी है आज उनके कुछ अनमोल दोहों को फिर से पढ़ खुद को जागरूक करने का।
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलया कोई
जो मन खोजा आपने, तो मुझसे बुरा ना कोई।
अर्थ:- कबीरदास अपनी पंक्तियों में यह कहना चाटते है की जब मैं इस दुनिया में बुराई ढूंढने निकला तो मुझे कोई बुरा नहीं मिला। पर जब मैने खुद में बुराई ढूंढ़ी तो मुझे खुद से बुरा कोई नहीं मिला।
पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया ना कोई,
ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होए।
अर्थ:- बड़ी बड़ी किताबें पढ़ और किताबी ज्ञान पा कर ना जाने कितने ही मृत्यु के द्वार पे पहुँच गए और खुद को विद्वान घोषित किया पर हर कोई विद्वान नहीं था। कबीर मानते है कि अगर तुम हज़ारो किताबें पढ़ने के बाद भी यदि प्रेम का ज्ञान नहीं सीखते तब तक तुम सच्चे तौर से ज्ञानी नहीं कहलाओगे।
तिनका कबहुँ ना निंदिये, जो पावन तर होये,
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होये।
अर्थ:- कबीरदास कहते हैं की कभी भी पाँव के नीचे पड़े तिनके की निंदा नहीं करनी चाहिए क्योंकि अगर वही तिनका आँख में लग जाए तो बहुत पीड़ा देगा। इसी प्रकार कभी किसी व्यक्ति को खुद से कम या छोटा मत समझो।
दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार,
तुरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि न लागे डार।
अर्थ:- इस संसार में मनुष्य का जन्म मुश्किल से मिलता है।यह मानव शरीर उसी तरह बार बार नहीं मिलता जैसे वृक्ष से पत्ता झड़ जाए तो दुबारा डाल पर नहीं लगता।
हिन्दू कहे मोहि राम पियारा, तुर्क कहे रहमाना,
आपस में दोउ लड़ी- लड़ी मुए, मरम न कोउ जाना।
अर्थ:- कबीर कहते है कि हिंदू राम के भक्त है और तुर्क (मुस्लिम) को रहमान प्यारा है। दोनों इसी बात पर लड़ लड़ कर मौत के मुँह में जा , तब भी कोई इस सच को न जान पाया।
जब गुण को गाहक मिले, तब गुण लाख बिकाइ,
जब गुण को गाहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई।
अर्थ:- काबिरदार मानते है कि जब गुण को परखने वाला गाहक मिल जाता है तब गुणों की कीमत होती है। जब गुणों का गाहक नहीं मिलता तब गुण यूही कौड़ियों के भाव चला जाता है।
माया मुई न मन मुआ, मरी मरी गया सरीर,
आसा त्रिसना न मुई, यों कही गए कबीर।
अर्थ:- संसार में रहते हुए न माया मरती है और ना ही मन। शरीर न जाने कितनी बार मर चुका है, पर मनुष्य की आशा और तृष्णा कभी नहीं मरती। और ये बात कबीर काफी बार कह चुके है।