साहित्य और कविताएँ
भूली इंसानियत
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भूली इंसानियत
समाज की नियति जिसे बतलाते हो,
क्यूँ नाम सुनकर तुम मुझे मेरा काम बताते हो?
पूजते हो दुर्गा और लक्ष्मी को,
पर खुद राक्षक का किरदार निभाते हो।
क्यों खुद को इंसान कह कर,
इंसानियत का पाठ भूल जाते हो।
मुझे मेरा दायरा बताते हो,
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पर अपनी हद्दे खुद भूल जाते हो।
मार कर सब को जीत रहे हो
ना जाने तुम कौन सी जंग,
तेरे मेरे लहू का है एक जैसा ही रंग।
इंसान बनाने में खुदा ने,
ना जाने कैसी भूल कर डाली,
ये गलती अब है ऐसी,
जो उससे भी ना सुधरने वाली।
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