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Hari kishan death anniversary: हरि किशन तैलवार, जिसने अंग्रेजों की गोली से नहीं, अपने इरादों से हिला दिया था शासन

Hari kishan death anniversary, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उन अनगिनत निस्वार्थ वीरों में से एक थे हरि किशन तैलवार, जिनकी जीवन गाथा पढ़कर हर भारतीय का दिल गर्व से भर उठता है।

Hari kishan death anniversary : फांसी चढ़ते समय भी मुस्कराया जो, वो था हरि किशन तैलवार

Hari kishan death anniversary, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उन अनगिनत निस्वार्थ वीरों में से एक थे हरि किशन तैलवार, जिनकी जीवन गाथा पढ़कर हर भारतीय का दिल गर्व से भर उठता है। क्रांतिकारी गतिविधियों में सक्रिय ये युवा उस समय सामने आए जब मेरठ और पंजाब में ब्रिटिश शासन का अहंकार चरम पर था।

प्रारंभिक पृष्ठभूमि और मकसद

हरि किशन तैलवार का जन्म 11 अक्टूबर 1915 को पंजाब के एक सैनिक परिवार में हुआ था। बचपन से ही उनमें देशभक्ति की भावना गहरी जगी थी। ब्रिटिश शासन द्वारा असमय गिरफ्तारियाँ, यातनाएँ और भारतीय युवाओं के कड़े दमन ने उन्हें गांधीवादी अहिंसा से हटकर सशक्त प्रतिरोध के रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित किया।

पहला बड़ा प्रयास: पंजाब के राज्यपाल को निशाना

23 दिसंबर 1930 को, जब पंजाब यूनिवर्सिटी का स्नातक समारोह चल रहा था, हरि किशन ने अपना पहला बड़ा साहसिक कदम उठाया। उन्होंने समारोह में कथित रूप से पास लेकर प्रवेश किया और अचानक हाथ में रिवॉल्वर लेकर गवर्नर ऑफ पंजाब सर जेफ्री डी मॉन्टमोरी पर दो गोलियाँ चलाईं। एक गोली उनके बांह में लगी, जबकि दूसरी पीठ से निकलकर गवर्नर के लिए त्वचा-आघात पैदा कर गई ।

गिरफ्तारी, यातनाएँ और मुकदमा

गोलियां चलाने के बाद हरि किशन फिर रिवॉल्वर रीलोड करने की कोशिश में सक्रिय रहे, लेकिन उन्हें ब्रिटिश पुलिस ने जल्द ही गिरफ़्तार कर लिया। गिरफ्तारी के बाद उन्हें लाहौर जेल भेजा गया, जहाँ उन्हें दरिंदगीपूर्ण यातनाएँ, बेरहमी से मारपीट और बर्फीले स्लैब्स पर रखा जाना जैसी अमानवीय यातनाएँ सहेनी पड़ीं । दो हफ्तों तक उन्हें यातनाएं झेलनी पड़ीं। ऐसा कहा जाता है कि उनके पिता, गुरुदास मल, जब पहचान के लिए पहुंचे, तो उन्होंने अपने बेटे से स्थिति पूछने के बजाय पूछा कि क्या उसने निशाना सही लगाया था! उस पर हरि किशन ने हँसते हुए बताया कि “कुर्सी हिली थी, इसलिए मैं असफल रहा।” यह उदाहरण उनके साहस, आत्मबल और देशभक्ति को दर्शाता है।

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मुकदमा एवं मृत्यु

5 जनवरी 1931 को उनका मुकदमा शुरू हुआ। हरि किशन ने खुले तौर पर स्वीकार किया कि वे सत्य की राह में निकले थे, और उनका उद्देश्य ब्रिटिश अत्याचार को विश्व के सामने लाना था। इसके कुछ ही दिनों बाद, 26 जनवरी 1931 को उन्हें फाँसी की सजा सुनाई गई एक दिन जो बाद में भारत के गणतंत्र दिवस के रूप में इतिहास में दर्ज हुआ। जेल में उन्होंने भोजन व्रत रखा और 9 जून 1931 की रात फाँसी के फंदे पर चढ़े ।

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बलिदान की अमर महिमा

हरि किशन की यह कहानी सिर्फ एक शहीद की नहीं, बल्कि युवा देशभक्ति, सत्य की खातिर जान देने का उपहार और क्रांति की अग्नि का प्रतीक है। वे अपने साथ काले-जाल वाले शासन को चुनौती देकर संदेश देना चाहते थे कि स्वतंत्रता की कीमत आत्मबलिदान से कम नहीं होती।

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