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Republic Day 2024 : अपने 75वें गणतंत्र दिवस पर देश का सवाल, आखिर कमी कहाँ है ?
भारत

Republic Day 2024 : अपने 75वें गणतंत्र दिवस पर देश का सवाल, आखिर कमी कहाँ है ?

Republic Day 2024 : भारत ने 75 सालों में संविधान के मूल 395 अनुच्छेदों में संसद द्वारा लगभग 105 संशोधन किए।

Republic Day 2024 : आखिर कहाँ रह गई कमी, कानून में या फिर इसके लागू करने के तरीके में…


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Republic Day 2024 : 1950 में आज ही के दिन हमारे देश का संविधान लागू हुआ था। तब से आज तक हर साल इस दिन को हम गणतंत्र दिवस के रूप में मना रहे है।

Republic Day 2024 : संविधान एक “जीवित दस्तावेज”

संविधान जिसे “जीवित दस्तावेज” भी कहा जाता है, जिसने न केवल भारतीय समाज के विकास को आकार दिया है। बल्कि बढ़ते सामाजिक रुझानों और पैटर्न का भी इस पर असर देखा जा सकता है। यूँ तो कई देशों में संविधान को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए पुराना संविधान बदलकर नया संविधान अपना लिया जाता हैं, लेकिन वहीं भारत में इसे “जीवित” रखने के लिए लगातार संशोधन किये जातें हैं। आपको पता ही होगा की भारत ने 75 सालों में संविधान के मूल 395 अनुच्छेदों में संसद द्वारा लगभग 105 संशोधन किए। वहीँ ऑस्ट्रेलिया ने 100 सालों में लगभग 8 और अमेरिका ने 200 सालों में सिर्फ 27 संशोधन किए हैं।

75 सालों में संविधान के 105 संशोधन से क्या हमारे देश से पुरानी खामियां दूर हुईं?

ऐसे में यह पूछना जरूरी हो जाता है कि 75 सालों में संविधान के 105 संशोधन से क्या हमारे देश से पुरानी खामियां दूर हुईं? क्या संविधान को पहले से ज्यादा उदार बनाया गया? या इसने समाज को पहले की तरह ही चलने दिया?
संविधान और भारतीय समाज के बीच संबंध की एक जटिल प्रक्रिया है। एसे में सवाल यह भी उठता है की संविधान किस प्रकार के लोकतंत्र को बढ़ावा देना चाहता है? इतना ही नहीं सवाल यह भी है की समय के साथ राजनीति के निर्विवाद सत्तावादी बहाव को मंजूरी देने में संविधान कितना जिम्मेदार है?

क्या अयोग्य नेताओं, नौकरशाहों और पेंचीदा न्याय प्रकिया  के कारण संविधान को सही से लागू नहीं किया जा सका ?

कई लोग दावा करते हैं कि संविधान तो अच्छा है, लेकिन अयोग्य नेताओं, नौकरशाहों और पेंचीदा न्याय प्रकिया  के कारण इसे सही से लागू नहीं किया जा सका और कइ बार इसकी व्याख्या मे अंतर देखा गया है। अगर मैं माधव खोसला की किताब दि इंडियन कॉन्स्टिट्यूशन की बात करूँ तो माधव खोसला अंबेडकर का हवाला देते हुए लिखते हैं की – “संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो अगर इस पर काम करने वाले लोग खराब होंगे तो यह खराब होगा और संविधान कितना भी खराब क्यों न हो अगर इसके लिए काम करने वाले लोग अच्छे होंगे तो यह अच्छा होगा।”

दिक्कत कहाँ है ? कानून में या फिर लागू करने के तरीके में…

अब अगर वो इतने ही अच्छे होंगे तो संविधान की शायद जरुरत ही नहीं पड़ेगी? और अगर वो इतने भ्रष्ट है और संविधान का इस्तेमाल गलत तरीके से कर रहें है, तो फिर सवाल ये है की सशक्त होने की जरुरत किसे है ? अगर कानून को गलत तरीके से तोड़ा मड़ोड़ा जा रहा है तो फिर loop holes कहाँ है ? और अगर इतने संसोधनो के बाद भी हम कानून के गलत तरीके से इस्तेमाल होने से नहीं बचा पा रहे है तो दिक्कत कहाँ है ? कानून में या फिर लागू करने के तरीके में…

अच्छे इरादों और अंतिम सामाजिक परिणामों के बीच की खाई के लिए दोषी कौन ?

अब कोई इस बात की आड़ तो नहीं ले सकता कि अच्छे इरादों और अंतिम सामाजिक परिणामों के बीच की खाई के लिए कोई दोषी ही नहीं है, क्योंकि सविधान का एक काम समाज के सभी वर्गों को समान आकार देना भी है। लेकिन लगभग 30 प्रतिशत लोग आज भी गरीबी में जी रहे हैं। अगर हम मूलभूत जरूरतों जैसे की शिक्षा, स्वास्थ्य और घर को जोड़ दें तो लगभग 40 प्रतिशत अतिरिक्त लोग, इस श्रेणी में आ जाएंगे. जिनके लिए खराब फसल, उच्च मुद्रास्फीति या परिवार में आई बीमारी उन पर कहर बरपा सकती है। आज जब भारत अपना 75 वा गणतंत्र दिवस मना रहा है तो भी देश में आय, धन और राजनीतिक शक्ति में असमानता लगातार बढ़ती ही जा रही है।

संविधान को कम से कम तीन कसौटी पर कसा जाना काफी अहम्

एसी परिस्थिति में भारतीय संविधान को कम से कम तीन कसौटी पर कसा जाना काफी अहम् हो जाता है-
पहला – संविधान द्वारा तैयार किया गया लोकतांत्रिक ढांचा,
दुसरा – सामाजिक न्याय के लिए इसकी प्रतिबद्धता और
तीसरा – भारत की विविधता को संभालने का इसका तरीका…
क्या इन तीन कसौटियों पर भारतीय संविधान खड़ा उतर पा रहा है? अगर नहीं तो क्यों ?

संविधान का अंतिम फैसला देने वाला आखिर कौन है?

अच्छा आपको पता है न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच इस बात पर एक लंबा विवाद रहा है कि संविधान का अंतिम फैसला देने वाला आखिर कौन है? बता दे की सुप्रीम कोर्ट की संविधान की व्याख्या केवल दस्तावेज पर आधारित नहीं है। यानी बस जो सविधान में लिखा है सुप्रीम कोर्ट सिर्फ उसी की व्याख्या नहीं करती बल्कि कई बार इसने संविधान निर्मताओं की ‘मंशा’ पर भी विचार किया है। कई बार, सुप्रीम कोर्ट ने संविधान को “रचनात्मक रूप से अपनाने” की तरफ अपना झुकाव भी दिखाया है। क्या आपको पता है सुप्रीम कोर्ट के 1973  के केशव नंदा भारती मामला और उसके बाद 1980 के मिनर्वा मिल्स मामला ने संविधान की मूल संरचना का सिद्धांत कोर्ट को ख़ास निर्णायक शक्तियां देता है। क्यों की लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाली चुनी हुई संसद संविधान संशोधन की शक्ति तो रखती है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट इस सिद्धांत के तहत संविधान के मूल भाव से छेड़छाड़ करने वाले किसी भी संशोधन को निरस्त कर सकता है। आपको बता दे की कोर्ट ने संविधान की व्याख्या की इसी शक्ति का इस्तेमाल करते हुए कई प्रगतिशील मामलों में फैसले दिए हैं, जैसे- सूचना का अधिकार और मूलभूत अधिकारों के तहत निजता पर फैसला आदि। वैसे यह बात भी चिंताजनक है कि उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्तियां अब भी इतनी पारदर्शी नहीं है…

संविधान द्वारा परिभाषित ससंदीय और पार्टी व्यवस्था

हमें दूसरी तरफ यह भी देखना होगा कि संविधान द्वारा परिभाषित ससंदीय और पार्टी व्यवस्था लोगों की इच्छाओं का पर्याप्त प्रतिनिधित्व कर रही हैं या नहीं। लेकिन यहां भी कुछ कमजोरियां नजर आतीं हैं, जैसा की आपको पता ही होगा की राज्यसभा के सांसद उस राज्य के निवासी होने जरूरी नहीं हैं, जहां से वे प्रतिनिधि हैं। और दूसरी बात ये भी की संसद और राज्य विधानसभाओं में सदस्य अपनी पार्टी के खिलाफ जाकर वोट ही नहीं कर सकते। चलो विश्वास मत के मौके पर पार्टी के खिलाफ वोट न करने की बात समझ आती भी है, लेकिन दूसरे मामलों में यह कहीं से तर्कसंगत नहीं लगता और बहस के स्थान को कम करता नजर आता है। अगर चुने गए नेता अपनी साइड नहीं बदल सकते तो फिर उनके मत की महत्ता ही क्या है?

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कहानी 1953 की

आपको 1953 की एक कहानी पता है जब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने खुद संविधान को जलाने की बात की थी
दरअसल बात 2 सितंबर 1953 की है जब राज्यसभा में गवर्नर की शक्तियों को लेकर बहस चल रही थी। इसी दौरान डॉ. भीमराव अंबेडकर ने खुद कहा था कि, ‘मेरे दोस्त कहते हैं कि संविधान को मैंने बनाया, लेकिन इसे जलाने वाला पहला व्यक्ति भी मैं ही होउंगा। बहुसंख्यक यह नहीं कह सकते हैं कि अल्पसंख्यकों को महत्व देने से लोकतंत्र को नुकसान होगा। असल में अल्पसंख्यकों को नुकसान पहुंचाना सबसे ज्यादा नुकसानदायक होगा।’

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लेकिन सवाल ये है की आखिर उन्होंने एसी बात की ही क्यों थी ?

तो आपको बता दे की मार्च 1955 में एक बार फिर यह मुद्दा राज्यसभा में उठा कि आखिर अंबेडकर के ऐसा कहने के पीछे क्या वजह थी? तब बाबा साहेब अंबेडकर ने कहा कि पिछली बार मैं आपको संविधान जलाने का कारण नहीं बता पाया था। दरअसल वह बात कहने के पीछे कारण यह था कि अगर हम भगवान के रहने के लिए कोई मंदिर बनाते हैं। लेकिन उसमें कोई राक्षस आकर रहने लगे। ऐसे में हमारे पास मंदिर तोड़ने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचेगा। क्योंकि हमने तो मंदिर भगवान के लिए बनाया था, राक्षस के लिए नहीं। बता दे की दरअसल उस समय अंबेडकर संविधान में किए गए कई संशोधन से नाराज थे। उन्हें लगता था कि अगर संविधान को सही से लागू नहीं किया गया तो देश की 5 फीसदी आबादी लोकतंत्र पर कब्जा कर लेगी और 95 फीसदी आबादी को लाभ नहीं मिल पाएगा।

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