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नई शिक्षा नीति-2020 में भारत कहाँ है?

शिक्षा में निजीकरण का बढावा दिया जा रहा है




नई शिक्षा नीति को कैबिनेट की मंज़ूरी मिल जाने के बाद एक बड़े शिक्षित वर्ग ने इस पर बहस छेड़ दी है। शिक्षा सभी व्यक्तियों, समाज, वर्गों, धर्मों आदि के मानव – विकास के लिए जरुरी है। लेकिन भारत के लिए बेहद जरुरी है। यहाँ पर भारत शब्द का अर्थ हर उस वर्ग से है जो आर्थिक – सामाजिक एवं राजनैतिक रूप से कमजोर जैसे महिला,अल्पसंख्यक, दलित, पिछड़ा है।

भारत की नई शिक्षा नीति को गंभीरता से पढ़ना चाहिए और उस पर भारत के लोगों  को विचार करना चाहिए। नई शिक्षा नीति के शब्द जीएसटी की तरह बेहद आकर्षक और लुभावने है, जैसा कि सभी रिपोर्ट्स के होते हैं, लेकिन यह नीति नई सरंचना को स्थापित करेगा यह कहना बहुत ही मुश्किल है।

इसकी मूल रिपोर्ट्स 477 पेज की थी जिसके सुझाव को जोड़कर इसे सारांश में 65 पेज में कर दिया गया है। पहले तो यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि कोई भी रिपोर्ट्स, नीति, आदि सरकार के मानने के लिए बाध्य नहीं होती हैं आप इसके लिए कानून का भी सहारा नहीं ले सकते हैं क्योंकि संविधान में इसके लिए कोई प्रावधान नहीं किया गया है। प्रश्न यहाँ शुरू होता है कि भारत के एक बड़े वर्ग को जो दशकों से शिक्षा से वंचित है, उसे इस रिपोर्ट्स पर सवाल क्यों खड़े करने चाहिए, उन्हें क्यों राय देनी चाहिए, उन्हें इस नीति में खुद को कहाँ देखना चाहिए? क्योंकि कोई रिपोर्ट, नीति आदि भविष्य में अनेक वर्षो तक निर्धारण और फ्रेमवर्क का काम करती है। उसी के आधार पर उसके गोल्स को प्राप्त करने पर कार्य किया जाता है।

इसे भारत को इसलिए गंभीरता से लेने की आवश्यकता है क्योंकि यह नीति शिक्षा पर है और शिक्षा मनुष्य के विकास का आधार है। इस नीति में सभी वर्ग की महिलाओं, दलित, अल्पसंख्यक, पिछड़ों के लिए क्या विशेष है, कितने लोगों को इस नीति में शामिल किया गया है, उनका कोई प्रतिनिधि इसमें शामिल है या नहीं गौर करना चाहिए क्योंकि यह नीति बहुत बड़े तबके के लिए है और अगर उसका कोई प्रतिनिधत्व न हो तो वह नीति कितनी ही अच्छी क्यों न हो उसके लिए बेकार है।
सविंधान के रचनाकारों ने शिक्षा को मनुष्य के लिए बेहद अहम हिस्सा माना है। भारत के कई विभूतियों ने शिक्षा के लिए लड़ाई लड़ी है, चाहे महिलाओं की शिक्षा के लिए सावित्री बाई फूले हो, बाबा भीमराव आंबेडकर या महत्मा गाँधी। सभी ने शिक्षा को महत्व दिया है। कुछ अहम सवालों के साथ हम इस शिक्षा – नीति को समझ सकते हैं-

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1. क्या इस नीति में या इससे पहले बनी सभी नीतियों में महिला, दलित, पिछड़े वर्ग के बुद्धिजीवियों को शामिल किया गया है?

जवाब – नहीं, इस नीति में भी किसी दलित, पिछड़े वर्ग के बुद्धिजीवी को शामिल नहीं किया गया है। आजादी के 7 दशकों के बाद भी सरकार को कभी यह नहीं लगा कि राष्ट्र की शिक्षा – नीति के निर्धारण में भारत के दृष्टिकोण को सम्मिलित करना चाहिए। हम उस 7 दशक के दौर के पहले के लिए कह सकते है कि उस काल खंड में एक बड़े तबके में बुद्धिजीवी की कमी थी (जबकि ऐसा था नहीं) और जागरूकता की कमी थी जो वह दबाव बना पाते और सवाल कर पाते कि उन्हें क्यों शामिल नहीं किया गया, लेकिन वर्तमान में ऐसी कोई स्थिति नहीं है कि बुद्धिजीवी नहीं है और वह सरकार पर दबाव न बना पाएं, अपने हक के लिए आवाज़ न उठा पाएं। दोनों की गलतियां साफ़ दिखाई पड़ रही है. इस पर और भी विस्तार से लिखा जा सकता है।

2. क्या इस रिपोर्ट्स में भारत के चिंतको को शामिल किया गया है?

जवाब – नहीं, इस रिपोर्ट में एक भाग है जिसका नाम है “विरासत से सीख लेना” इस भाग में विवेकानन्द, चरक, आर्यभट्ट, चाणक्य, पंतजलि, पाणिनि आदि का तो जिक्र किया गया है लेकिन भारत के चिंतकों को शामिल नहीं किया गया है जैसे- सावित्रीबाई फुले, ताराबाई शिंदे, दुर्गाबाई देशमुख ,फातिमा शेख, आदि. मानो ऐसा लग रहा है कि यह विरासत के अंग नहीं है। मध्यकाल के निर्गुण शाखा के एक भी संत-कवियों एवं कवयित्रियों को शामिल नहीं किया गया है। यहाँ तक कबीर, रैदास, चोखा, मीराबाई आदि को भी एक लाईन देना उचित नहीं समझा गया है।

3. क्या महिलाओं की शिक्षा के लिए कार्य करने वाले चिंतको को शामिल किया गया है?

जवाब- नहीं, किसी भी महिला को शामिल नहीं किया गया है, चाहे वह सावित्रीबाई फुले हो या फातिमा शेख, पंडिता रमाबाईया अन्य।

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4. क्या रिपोर्ट में दलित, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों को कोई महत्व दिया गया है?

इसका भी जवाब होगा अंशतः. रिपोर्ट्स में अनुसूचित जाति और पिछड़ी जाति को अधिकतम 40 लाईन में लिखकर उनके लिए नीति कैसे निर्धारित कर दी गई है, जबकि दोनों की सामजिक सरंचना अलग-अलग है। दोनों को एक साथ कैसे देखा जा सकता है। इसलिए अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति एवं पिछड़ी जाति के साथ भेदभाव की ऐतहासिकता साफ़ नजर आती है। अल्पसंख्यक को मात्र 65 लाइन में परिभाषित करने का काम किया गया है, जबकि यह सभी कुल जनसंख्या का 85 प्रतिशत हिस्सा है। अगर हम AISHE -2019 के रिपोर्ट की बात करें जिसमें अनुसूचित जाति का इनरोलमेंट 14.9 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति का 5.5 प्रतिशत, ओबीसी 36.3 प्रतिशत, 5.2 प्रतिशत मुस्लिम अल्पसंख्यक जबकि अन्य अल्पसंख्यक का इनरोलमेंट मात्र 2.3 प्रतिशत है।

5. रिपोर्ट्स में समान अवसर की बात पर जोर दिया गया परन्तु क्या जातिगत भेदभाव का उल्लेख भी इस रिपोर्ट में किया गया है?

समान अवसर की बात कही गयी है लेकिन इस पहल के लिए कितना पैसा दिया जायेगा और कैसे संभव होगा कोई बात नहीं की गई है जबकि आये दिन समाज में जातिगत भेदभाव की घटनाएं देखने और सुनने की मिल रही है, क्या यह भेदभाव शैक्षणिक संस्थानों में नहीं है? बिलकुल है, कि किस प्रकार बच्चों के साथ जातीय भेदभाव होता है हर स्तर पर यह जारी है। नंबर कम देने से लेकर इन्टरव्यू में भी भेदभाव देखने को मिलता है। हाल ही में इसके लिए दिल्ली हाईकोर्ट में केस भी फाईल किया गया, लेकिन रिपोर्ट्स में कोई जिक्र नहीं है। ऐसा लगता है समाज में सब रामराज्य फैला है।

6. क्या वोकेशनल शिक्षा संभव हो पाएगी?

इस रिपोर्ट में वोकेशनल शिक्षा पर जोर दिया जा रहा है और लक्ष्य रखा गया है कि 2035 तक 50 प्रतिशत छात्रों को वोकेशनल शिक्षा से जोड़ दिया जायेगा जो कि यह दिवास्वप्न जैसा है क्योंकि 7 दशक बाद भी केवल 5 प्रतिशत लोग ही वोकेशनल शिक्षा ले पाए हैं। सवाल है कि वोकेशनल शिक्षा किसके लिए है, यह शिक्षा केवल अमीर तबकों के लिए है।

7. क्या 2035 तक GER (ग्रास एनरोलमेंट रेशियो) को 100 प्रतिशत करना संभव है?

बिलकुल संभव नहीं है क्योंकि AISHE-2019 की रिपोर्ट को अगर देखे तो आंकड़े कुछ इस प्रकार हैं – भारत का कुल 18-23 वर्ग समूह का GER 26.3 प्रतिशत है जिसमें पुरुष और महिला GER 26.3% है, और अनुसूचित जाति का GER 26.4 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति का 23 प्रतिशत है. 100 प्रतिशत तक GER करने का ख्याली पुलाव जैसा है।

8. क्या यह नीति राईट टू एजुकेशन-2009 को प्रभावित करेगा?

अवश्य यह नीति RTE -2009 को प्रभावित करेगा क्योंकि RTE -2009 में फ्री शिक्षा की बात 6-14 वर्ष के लिए प्रावधान था जबकि इस नीति में 3-18 वर्ष की बात की गई है जोकि बहुत अच्छा सुझाव है लेकिन यह संभव नहीं है उसके लिए संशोधन करना होगा। संशोधन करने पर अवश्य बहुत कुछ हटाया जायेगा।

9. क्या भारत में बिना भेदभाव और पॉलिटिकल इन्फ्लुवेंस के नौकरी पाना संभव है?

रिपोर्ट में फेयर रेक्रुमेंट की बात कही गई जो कि अच्छा सुझाव है, लेकिन यह कैसे होगा रिपोर्ट चुप है और अब तक के नतीजे आपके सामने है कि कैसे प्रोफेसर की भर्ती होती है।

10. शिक्षा में डायरेक्टोरेट साम्राज्य खत्म करने की बात संभव है?

सुझाव अच्छा है लेकिन जवाब है नहीं जबकि यह नीति स्वयं साम्राज्य को बढावा देगी। अभी तक कई स्तर थे जबकि एक शिक्षा मंत्रलाय होगा और एक बोर्ड होगा वही सबकुछ करेगा।

11. क्या 1-5 कक्षा तक के लिए मातृभाषा, प्रांतीय भाषा में शिक्षा संभव है?

सुझाव यह भी उचित है लेकिन यह कैसे संभव होगा इस पर कोई विचार नहीं है क्योंकि एक ही राज्य में कई मातृभाषा बोली जाती है जैसे उत्तर प्रदेश में ही अवधी, भोजपुरी, बघेली आदि। दूसरा क्या उसके लिए अंग्रेजी माध्यम के स्कूल पर कोई नियमावली है जिससे कुकुरमुत्ते की तरह खुले अंग्रेजी माध्यम विद्यालय के ठेकेदारों को रोका जा सके। वैसे भी अगर भारत के बच्चों को आगे बढ़ने के लिए शुरू से ही अंग्रेजी माध्यम पढना चाहिए, क्यों पढना चाहिए इस पर और भी विस्तार से लिखा जा सकता है।

12. क्या राष्ट्रीय शिक्षा आयोग बनाना सफल होगा?

नीति में एक राष्ट्रीय शिक्षा कमेटी बनाने का सुझाव दिया है जिसका अध्यक्ष शिक्षा मंत्री होगा और जिसमें कई राज्यों के बुद्धिजीवी को शामिल करने के लिए सुझाव है जो कि अच्छा सुझाव है लेकिन इसके साथ प्रत्येक राज्य के शिक्षा मंत्री को अवश्य शामिल किया जाना चाहिए लेकिन नहीं किया जायेगा, क्यों नहीं किया जाएगा इसकी एक अपनी अलग राजनीति है।

13. क्या जीडीपी का 6 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करना संभव है?

सुझाव अच्छा है लेकिन अभी तक अधिकतम 4.6 प्रतिशत तक ही खर्च किया गया है जबकि मोदी सरकार आने के बाद उसमें लगातार कटौती की गई है अगर 6 प्रतिशत खर्च करना था तो 6 साल तक क्यों नहीं किया गया है।

14. EWS कोटे के लिए क्या है?

हाल ही में 10 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया है जिसमें 25 प्रतिशत तक सीटें बढ़ाने के लिए कहा गया है, लेकिन रिपोर्ट्स में कोई सुझाव नहीं है जो एक अहम मुद्दा है जिस पर रिपोर्ट शांत है।

15. क्या अब निजीकरण को बढ़ावा मिलेगा?

अवश्य इसे लागू होने के बाद निजीकरण तेजी से बढ़ेगा क्योंकि निजीकरण के लिए दरवाजे पहले से अधिक खोल दिए गए हैं। कुल मिलाकर शिक्षा अब गरीबों के लिए नहीं है।

16. क्या क्रिटिकल थिंकिंग को बढ़ावा मिलेगा?

नीति में सुझाव दिया गया है कि क्रिटिकल थिंकिंग को बढ़ावा दिया जायेगा जो कि अच्छी बात है, लेकिन सवाल पूछने पर जेल में डाल दिया जायेगा। हालात तो ये है कि विश्विद्यालयों को एक सेमिनार आयोजित करवाने के लिए कुलपति की परमिशन लेनी होती है, तो यह सब एक छलावा है जिसके शब्द तो बेहद खूबसूरत है लेकिन होने वाला न के बराबर है।अब तक आप सभी सवालों के जवाब पा गए होंगे, ऐसी स्थिति में नई शिक्षा नीति भारत (महिला, अल्पसंख्यक, दलित और पिछड़ों) के लिए कोई आशा की किरण लेकर नहीं आया है और बहुत कुछ के लिए निराशा से युक्त है। कोई ठोस कार्यक्रम और विजन नहीं है जिससे सरंचना में बदलाव आये।

डिस्केलमर- यह लेखक के अपने विचार है. हमारे संस्थान का इसमें कोई विचार नही हैं.

लेखक- पंकज चौरसिया
शोधार्थी(रिसर्च स्कॉलर)- महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा

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