काम की बात

शिक्षा संस्थानों में ट्रांसजेंडर कम्यूनिटी के लिए एक सीट आरक्षित होनी चाहिए – विद्या

हर क्षेत्र में तरक्की कर रहे हैं ट्रांसजेंडर


अहम बिंदु

– ट्रांसजेडर की स्थिति में बदलाव
– ट्रांसजेडर की राय
– अहम पदों पर ट्रांसजेडर
– ट्रांसजेडर की कानूनी लड़ाई

हर साल जून महीने में प्राइड मंथ मनाया जाता है। इस साल इस उत्सव को 50 साल पूरे हो चुके हैं। लगभग पूरे विश्व में लॉकडाउन है। प्रत्येक देश में LGBTQ कम्यूनिटी के लोग अलग-अलग तरह से इस उत्सव को मना रहे हैं। भारत में भी कई तरह के ऑनलाइन कार्यक्रमों का आयोजन किया गया है। लेकिन देखने वाली बात यह है कि इतने लंबे संहर्ष के बाद भी क्या LGBTQ कम्यूनिटी के लोग अपने आप को सुरक्षित महसूस कर पा रहे हैं। आज भी शाब्दिक और शारीरिक तौर पर ट्रांसजेंडर के साथ हिंसा की खबरें सुनने को मिलती है।  हम अच्छे समाज की कल्पना तो करते हैं लेकिन आज भी किसी किन्नर का मजाक उड़ाने से बाज नहीं आते हैं। किसी गे और लेस्बियन से दोस्ती करने से डरते हैं।

ट्रांसजेडर की स्थिति में बदलाव

साल 2009 से शुरु हुई कानूनी लड़ाई से कई तरह के बदलाव आऐ हैं। जिसका नतीजा यह है कि आज खुलकर लोग अपने आप को थर्ड जेंडर का हिस्सा बताने की हिम्मत जुटा पा रहे हैं। LGBTQ विषय पर शोध करने वाले महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के शोधार्थी डिसेंट साहू का कहना है कि शोध के दौरान LGBTQ समूह के सैकड़ों सदस्यों से बात करने व सुनने का मौका मिला। समूह को एक पहचान शब्द मे बांधकर समझा नहीं जा सकता । उन्हें सिर्फ जेंडर व यौनिकता के विविधता मे ही समझा जा सकता है. ट्रांसजेंडर समूह को बहुत सारी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। ट्रांसजेंड समूह पर किए हुए अध्ययनों से स्पष्ट होता है कि उन्हें सामाजिक ,आर्थिक और कानूनी बहिष्करण, हिंसा, कलंक, भेदभाव, मानवाधिकार उल्लंघन, यौन हिंसा आदि का सामना करना पड़ता है।

ट्रांसजेंडरों पर होती हिंसा और उनके संघर्षों की बात करते हुए डिसेंट कहते है कि हाल के समय मे हुए संघर्षों के कारण समलौंगिकता का गैर अपराधिकरण हुआ। ट्रांसजेडर अधिरकारों का संरक्षण एक्ट भी बना। हालांकि इसका लाभ भी व्यपाक समूह तक नहीं पहुंच पाया है।

जागरुकता की कमी के कारण अभी भी लोग खुले मन से LGBTQ समूह को स्वीकार नहीं कर पाए है। कानूनी मान्यता मिलने से सबसे बड़ा लाभ यह हुआ है कि समूह के लोग खुलकर सामने आ रहे हैं। उनका आत्मविश्वास बढ़ा है। इंटरलाइज होमोफोबिया. ट्रांसफोबिया कम हुआ है. बड़ा बदलाव यह भी है कि आज इन विषयों पर लोग आसानी से बात कर रहे है पढ़ लिख रहे हैं।

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ट्रांसजेडरों की राय

सक्षम ट्रस्ट(चंडीगंड) के अध्यक्ष धनजंय चौहान का कहना है कि हमें बचपन से ही संघर्ष करना पड़ता है। मैं लगभग 50 साल का हूं जिदंगी की ऑफ सेंचुरी अपनी पहचान और अपनी जरुरतों के लिए बीता दी है। आज भी संघर्ष जारी है। धनजंय का कहना है कि हमारी पहली लड़ाई अपने समाज के लोगों से ही शुरु हो जाती है। किन्नर समूहों से अगर कोई बाहर निकलना चाहता है तो पहला संघर्ष वहीं करना पड़ता है क्योंकि वह एक ऐसी जगह है जहां से बाहर निकलना बड़ा मुश्किल होता है।

अपने संघर्ष की बात को आगे बढ़ाते हुए धनजंय बताते है कि पंजाब यूनिर्वसिटी में पढ़ते हुए अहम मुद्दों पर सफलता प्राप्त की है। 2015 में पहली बार थर्ड जेंडर कॉलम को जोड़ा गया जिसके तहत मैं पहला स्टूडेंट्स था जिसे वहां एडमिशन मिला। यूनिर्वसिटी ने हमें पहचान तो दे दी थी लेकिन कुछ चीजें अभी भी ऐसी थी जो मिलनी बाकी थी। जिसमें सबसे जरुरी था बाथरुम (वॉशरुम)।  लड़कियों और लड़कों के लिए तो बाथरुम तो था लेकिन ट्रांसजेंडर किसमें जाएंगे यह बहुत बड़ा सवाल था। लेकिन संघर्ष जारी रहा है और अंत में यूनिर्वसिटी को अलग से बाथरुम बनाकर देना पड़ा।

ट्रांसजेंडर के लिए लोगों के नजरिए की बात करते हुए धनजंय कहते है कि बदलाव तो हुआ है लेकिन उतना नहीं है जितना होना चाहिए था। हमें कानूनी तौर पर तो अधिकार मिल चुके हैं लेकिन सामाजिक तौर पर आज भी हमें वो इज्जत नहीं मिलती है जो मिलनी चाहिए।

मितवा की फांउडर मेंबर और छत्तीसगढ़ सरकार की थर्ड जेंडर वेलफेयर बोर्ड की सदस्य विद्या का कहना है कि आज के दौर मे बहुत ज्यादा बदलाव आया है। लेकिन बराबरी के लिए हो सकता है अभी भी एक लंबा समय लग जाए। LGBTQ कम्यूनिटी में पिछले दस साल में जितना बदलाव हुआ है वह पिछली 100 सालों में भी नहीं हुआ था। इतना बदलाव आ गया है कि आज हर क्षेत्र में ट्रांस मौजूद है।

अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए विद्या कहती हैं कि जितने भी प्राइवेट और सरकारी इंस्टीट्यूट है इनमें ट्रांस के लिए निःशुक्ल शिक्षा के साथ-साथ एक सीट रिजर्व होनी चाहिए ताकि लोगों के साथ इनका मिलना जुलना ज्यादा हो सके और उनके बीच ट्रांस कम्यूनिटी के प्रति जागरुकता फैले।

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हर क्षेत्र में ट्रांसजेडर

एक लंबे संघर्ष के बाद आज पूरे देश में ट्रांसजेडर कई अहम पदों पर तैनात है। हर क्षेत्र में अपनी जीता का झंडा लहराया रहे हैं। साल 2017 में निताशा विश्वास देश की पहली ट्रांस क्वीन चुनी गई। साल 2016 में बंगाल की मानबी बद्दोपध्याय देश की पहली कॉलेज प्रिसिंपल चुनी गई। मानबी को यह ओहदा आसानी से नहीं मिल गया है। इसके लिए उन्हें कई तरह की परेशानियां का सामना करना पड़ा है। ट्रांसजेडरों के लिए केरल में एक स्कूल भी खोल गया जहां जिन लोगों ने ट्रांस होने के कारण अपनी पढाई बीच में छोड़ दी थी वह दोबारा पढ़ाई शुरु कर सकते थे। क्योंकि ऐसा देखा गया था कि साल 2015 में दिल्ली विश्वविद्यालय में थर्ड जेंडर के लिए अलग से एक कॉलम दिया था लेकिन एक भी फॉर्म एडमिशन के लिए नहीं आया। साल 2015 में मुंबई की सत्याश्री शर्मिला देश की पहली ट्रांसजेडर है जिन्हे ट्रांसजेंडर कॉलम के तहत पासपोर्ट दिया गया। अपसरा रेड्डी देश की पहली ट्रांसजेडर राजनीतिक नेता है। अपसरा ऑल इंडिया महिला कांग्रेस की जनरल सेक्रेटरी है। 30 वर्षीय जोइता मंडल देश की पहली ट्रांसजेडर जज बनी है।

 

ट्रांसजेंडर के अधिकार की लड़ाई

आज ट्रांसजेडर को लेकर लोगों का जो नजरिया बदला है वह सब एकदिन में नहीं हो गया है। जून के महीने में प्राइड मार्च की 50वीं सालगिराह मनाई गई। मतलब साफ है संहर्ष काफी पुराना है। भारत में इसकी शुरुआत 2009 के बाद से हुई है।पहली बार दिल्ली हाई कोर्ट में नाज फांउडेशन द्वारा याचिका डाली गई थी। जिसमें धारा 377 को हटा दिया गया था। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक बताते हुए इस पर स्टे लगा दिया था। जिस पर नाज फांउडेशन ने पुर्नयाचिका दायर की, साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने संवैधानिक तौर पर 377 को रद्द कर दिया।

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