Shava Sadhana: श्मशान में लाशों के बीच ही क्यों साधना करते हैं अघोरी? जानें कुछ चौंकाने वाले रहस्य
Shava Sadhana: शव साधना एक तांत्रिक साधना (आध्यात्मिक अभ्यास) है जिसमें अभ्यासकर्ता ध्यान के लिए एक शव पर बैठता है। शव साधना वामाचार ('हेटेरोडॉक्स') पूजा पद्धति का हिस्सा है, जिसका पालन गूढ़ तंत्र द्वारा किया जाता है। शव साधना को तंत्र के सबसे महत्वपूर्ण, सबसे कठिन और सबसे गुप्त अनुष्ठानों में एक माना जाता है। जानते हैं इसके बारे में क्या कहा जाता है और क्या लिखा गया है।
Shava Sadhana: क्या होती है शव साधना? अघोरी बाबा इसे श्मशान में ही क्यों करते, जानें पूरी कहानी
अघोरियों का एक ही लक्ष्य होता है, मोक्ष। लेकिन, इसे हासिल करने के लिए उनका सिद्धांत सबसे अलग और अटपटा है। अघोर का अर्थ है, अ घोर यानी जो घोर नहीं, डरावना नहीं। जो सरल हो, जिसमें कोई भेदभाव नहीं हो। अच्छे-बुरे, सुगंध-दुर्गंध, प्रेम-नफरत, ईर्ष्या-मोह से सर्वथा परे हो, वह है अघोरतंत्र। अघोरी तर्क देते हैं कि संसार में सबसे सरल होता है बालक। उसे भले-बुरे, सही-ग़लत, मोह-माया, अपने-पराए का ज्ञान नहीं होता। वह सबको समान समझता है। सबको अपनाता है।
इसीलिए अघोरी के लिए भी कोई चीज़ त्यागने योग्य नहीं। आमतौर पर जिससे लोग घृणा करते हैं, अघोरी उसे भी अपनाता है। जैसे- श्मशान, लाश, मुर्दे का मांस, कफन आदि। इन सबके ज़रिए ही अघोरी सरलता हासिल करते हैं। अघोरियों के आराध्य हैं भगवान शिव। भोलेनाथ का पांचवां रूप भी अघोर का ही कहा गया है। बस अघोरी इसी राह पर चलते हुए अनेक सिद्धियां, फिर मोक्ष प्राप्त करते हैं।
कैसे होते अघोरियों के क्रियाकलाप और रहन-सहन
अघोरियों का व्यवहार बड़ा रूखा होता है, क्योंकि वे संसार या संसारी जीवों से कोई लगाव नहीं रखते। उनके क्रियाकलाप भी बड़े डरावने होते हैं। लेकिन, उनके मन में सब जीवों के प्रति दया और उनके कल्याण की भावना छिपी रहती है। अब सवाल उठता है कि अघोरियों के क्रियाकलाप और रहन-सहन कैसे होते हैं? उनकी साधना कठोर और उसके तौर-तरीके डरावने क्यों होते हैं? वे लोग शरीर को भस्म से क्यों रमाए रखते हैं? सबसे पहले जानते हैं उनकी भस्म का राज।
सर्दी-गर्मी से भी बचाती है भस्म
भगवान शिव की तरह उनके भक्त अघोरी भी भस्म धारण करते हैं। शरीर पर भस्म लगाने के पीछे उनका मानना है कि शरीर नश्वर है और एक दिन राख बन जाएगा। एक कारण यह भी है कि भस्म को शरीर पर मलने से त्वचा के रोमछिद्र बंद हो जाते हैं। इससे सर्दी का अहसास नहीं होता। गर्मी में शरीर की नमी बाहर नहीं जाती, जिससे तपन का अहसास नहीं होता। साथ ही मक्खी-मच्छर और कीट-पतंगे भी नहीं काटते।
सांसारिक अग्नि से उत्पन्न होती है भस्म
अघोरियों के मुताबिक, ‘भ’ अर्थात ‘भर्त्सनम्’ यानी ‘नाश हो’ और ‘स्म’ अर्थात स्मरण। मतलब-भस्म से पापों का नाश होकर ईश्वर का स्मरण हो। भस्म मुख्य रूप से दो प्रकार की होती है- महाभस्म और स्वल्प भस्म। स्वल्पभस्म की कई शाखाएं हैं, जिनमें श्रोत, स्मार्त और लौकिक अधिक प्रसिद्ध हैं। जो भस्म वेद की रीति से धारण की जाती है, उसे श्रौत कहते हैं। जो स्मृति या पुराणों की रीति से धारण की जाती है, वह स्मार्त है। जो भस्म सांसारिक अग्नि से उत्पन्न होती है और धारण की जाती है, उसे लौकिक कहा जाता है।
भस्म लगाते समय बराबर करते मंत्रों का जाप
वैसे तो अघोरियों के भस्म लगाने का कोई निश्चित समय नहीं, पर साधना से पहले वे भस्म ज़रूर धारण करते हैं। भस्म कपिला गाय के गोबर के कंडे के साथ शमी, पीपल, पलाश, बड़, अमलतास और बेर के वृक्ष की लकड़ियों को एक साथ जलाकर तैयार की जाती है। उसे कपड़े से छानकर रखा जाता है। इस दौरान बराबर मंत्रों का उच्चारण भी किया जाता है। अघोरी यही भस्म अपने आराध्य शिवजी को भी अर्पित करते हैं।
जानें कैसे धारण की जाती है भस्म
भस्म तैयार होने के बाद उसका सफेद भाग निकालकर अलग कर लिया जाता है। इसी भस्म से शिवलिंग पर तीन आड़ी रेखायें बनाई जाती हैं। इसे त्रिपुंड कहते हैं। मध्यमा और अनामिका दो अंगुलियों से दो रेखाएं खींचकर अंगूठे से बीच की रेखा विपरीत दिशा में खींचनी होती है। शिवजी को अर्पित करने के बाद ओम नमः शिवाय का उच्चारण करते हुए पहले अपने मस्तक, फिर दोनों भुजाओं, ह्रदय और नाभि आदि में त्रिपुंड लगाकर पूरी शरीर में भस्म लगाई जाती है।
मानव मल व मुर्दे का मांस तक खा जाते अघोरी
अघोरियों का मानना है कि इससे अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है और कई जन्मों के पापों से मुक्ति मिल जाती है। भस्म, त्वचा संबंधी रोगों का भी नाश करती है। वेद विधि से किए गए यज्ञ से तैयार भस्म श्रौत है। स्मृति की विधि से यज्ञ से मिली भस्म स्मार्त भस्म है। वहीं, कंडे को जलाकर तैयार की गई हो, तो वह लौकिक भस्म होती है। आपको बता दें कि अघोरी गाय का मांस छोड़कर बाकी सभी चीज़ों का सेवन करते हैं। मानव मल से लेकर मुर्दे का मांस तक खा जाते हैं।
अघोरपंथ में श्मशान साधना का विशेष महत्व
ऐसा नहीं है कि अघोरी केवल मांसाहार ही करते हैं, मिल जाए तो रोटी और खीर-पूड़ी भी बड़े चाव से खाते हैं। अघोरपंथ में श्मशान साधना का विशेष महत्व है। अघोरी जानना चाहता है कि मौत क्या होती है और वैराग्य क्या होता है। आत्मा मरने के बाद कहां चली जाती है? क्या आत्मा से बात की जा सकती है? ऐसे ढेर सारे प्रश्न हैं, जिसके कारण अघोरी श्मशानस में वास करना पसंद करते हैं।
श्मशान में साधना का शीघ्र फल मिलता
वे मानते हैं कि श्मशान में साधना का शीघ्र फल मिलता है। वहां किसी का आवागमन न होने से साधना में विघ्न भी नहीं पड़ता। श्मशान में तो शिव का वास है, उनकी उपासना से मोक्ष मिलता है। अघोरी श्मशान में तीन तरह की साधना करते हैं- श्मशान साधना, शव साधना और शिव साधना। शव साधना के पीछे उनका मानना है कि यह साधना अत्यंत कठिन है, जिसके पूरी होने से मुर्दा बोल उठता है और सारी इच्छाएं पूरी करता है।
मुर्दे को अर्पित करते मांस-मदिरा
शिव साधना में शव के ऊपर खड़े रहकर साधना की जाती है। ऐसी साधनाओं में मुर्दे को प्रसाद के रूप में मांस और मदिरा अर्पित किया जाता है। श्मशान साधना में मुर्दे की जगह शव पीठ की पूजा की जाती है। उस पर गंगा जल चढ़ाया जाता है। यहां प्रसाद के रूप में मांस-मंदिरा की जगह मावा चढ़ाया जाता है।
कैसे बचते हैं भूत-पिशाचों से?
अघोरियों के पास भूतों से बचने के लिए एक ख़ास मंत्र रहता है। साधना के पूर्व अघोरी अगरबत्ती, धूप जलाकर दीपदान करता है और फिर उस मंत्र को जपते हुए वह चिता के और अपने चारों ओर लकीर खींच देता है। फिर तुतई बजाना शुरू करता है और साधना शुरू हो जाती है। ऐसा करके अघोरी अन्य प्रेत-पिशाचों को चिता की आत्मा और ख़ुद को अपनी साधना में विघ्न डालने से रोकता है।
अमावस्या के दिन की जाती है शव साधना
दरअसल, शव साधना आमतौर पर अमावस्या के दिन की जाती है। रात में साधक को शव के साथ अकेला छोड़ दिया जाता है। अनुष्ठान आम तौर पर शमशान में किया जाता है। तंत्रसार किताब के अनुसार, शव की फूलों से पूजा की जाती है। उसे भैरव (शिव का एक रूप) और देवी के आसन के रूप में आमंत्रित किया जाता है और देवी को प्रसन्न करने के लिए जागृत होने का अनुरोध किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि संस्कार करते समय शव शक्ति का पात्र बन जाता है।
अनुष्ठान में साधक मुर्दे को जीवित करता
शाक्त कथाओं में कहा गया है कि शव के मुंह में सुपारी डाल कर उसकी पीठ पर हाथ फेरा जाता है। उस पर चंदन का लेप लगाया जाता है। 64 योगिनियों और दिशाओं की पूजा की जाती है। फिर अभ्यासकर्ता शव पर ऐसे चढ़ता है जैसे कोई घोड़े पर बैठता है। कहा जाता है कि इस अनुष्ठान में साधक मुर्दे को जीवित करता है। अगर इस क्रिया को करते हुए साधक भयभीत हो जाता है तो वो पागल हो सकता है लेकिन जिसने इसे कर लिया वो “गुप्त शक्तियां” प्राप्त कर लेता है। लेकिन ये माना जाता है कि ऐसा व्यक्तिय सिद्धियां जरूर हासिल कर लेता है लेकिन ये उसके पतन का कारण भी बन सकती है।
किसी जलाशय में दफनाया या विसर्जित कर देते शव
अनुष्ठान के अंत में शव को रस्सी के बंधन से मुक्त किया जाता है। फिर से स्नान कराया जाता है। शव को किसी जलाशय में दफनाया या विसर्जित किया जाता है। पूजा की सभी सामग्री भी जल में प्रवाहित कर दी जाती हैं। ऐसा माना जाता है कि रस्सी खोलने और शव के विसर्जन से अनुष्ठान के दौरान संचित ऊर्जा मुक्त हो जाती है।
सुनसान जगह पर अकेले की जाती शव साधना
आमतौर पर इसे किसी सुनसान जगह पर अकेले करने की सलाह दी जाती है, शव साधना करने वाले साधु को कभी-कभी उसकी तांत्रिक महिला पत्नी, जिन्हें उत्तर साधिका के नाम से जाना जाता है के द्वारा सहायता मिल सकती है। इन साधिकाओं को लेकर भी किताबों में बहुत कुछ लिखा गया है। ये भी लिखा गया है कि इस तरह के अनुष्ठानों में महिला उत्तर साधिकाएं बहुत जरूरी रहती हैं।
देश से विदेश तक कई लेखकों ने लिखीं किताबें
आपको बता दें कि शव साधना को लेकर देश से विदेश तक कई लेखकों ने किताबें लिखीं। मुख्य तौर पर इस तरह की साधना बनारस के गंगा के घाटों पर ज्यादा की जाती हैं। तंत्र मंत्र विशेषज्ञ अरुण शर्मा से लेकर कई विदेशी लेखकों ने इस पर कई किताबें लिखी हैं। ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ने इसे लेकर जून मैकडैनियल की किताब ऑफरिंग फ्लावर्स, फीडिंग स्कल्स – पॉपुलर गॉडेस वरशिप इन वेस्ट बंगाल में इस बारे में विस्तार से लिखा है। साथ ही कौलावली-निर्णय, श्यामराहस्य, तारा-भक्ति-सुधार्नव, पुरश्चार्चार्यर्णव, नीलतंत्र, कुलचूड़ामणि और कृष्णानंद का तंत्रसार इस विद्या की जानकारी देने वाली मुख्य किताबें हैं।
अगर आपके पास भी हैं कुछ नई स्टोरीज या विचार, तो आप हमें इस ई-मेल पर भेज सकते हैं info@oneworldnews.com