क्यों परिणाम का डर हमें बना रहा है कमज़ोर
परिणाम का डर- सही या गलत?
किसी भी चीज़ का डर गलत नहीं होता। डर का सम्मान तब तक करो, जब तक वो आपको काबू ना करे। पर तब क्या हो और तब क्याकरे जब आपका डर आप पर ही हावी होना शुरू हो जाए। ख़ास तौर पर परिणाम का डर । ये एक ऐसी चीज़ है जो हमे सही और गलत में फर्क करने देती। हमें गलत काम करने से रोकती है। ये डर वही है जो हमारी अन्तश्चेतना और हमारे विवेक के कारण हमें महसूस होता है। हमारे कर्मो का क्या परिणाम होगा इसके लिए हमे हमारा विवेक ही आगाह करता है। तो फिर क्यों ये हमें ताकत देने की बजाए, हमे कमज़ोर बना रहा है?
ये डर, ये अंतश्चेतना और ये विवेक हम सभी में होता है। हमे गलत और सही का आभास इतनी आसानी से करा देता है। वो तो हमारी सुनने और समझने की शक्ति पर निर्भर करता है कि कैसे हम इस आवाज़ को समझ कर, इस के अनुसार कार्य करते है। हर व्यक्ति गलत काम करने से पहले इसलिए रुक जाता है क्योंकि उस को समाज में अपनी और अपने परिवार के इज़्ज़त की फिक्र होती है। समाज को हम एक बार के लिए अगर नज़रअंदाज़ भी कर दे, तो भी हर व्यक्ति अपने आत्मा सम्मान के कारण गलत काम करने से रुक जाता है। अब कोई भी व्यक्ति गलत काम तीन कारणों से करता है क्योंकि :-
- समाज ने उसको पहले ही बुरा मान लिया है। और उस समाज में उसके लिए कोई जगह नहीं होती है। इसलिए उन्हें कोई फर्क ही नहीं पड़ता।
- जिस भी कार्यक्षेत्र में वो होते है, वहां के लोग और वहां के हालात उन्हें गलत काम करने पर मजबूर कर देते है। तो उन्हें दबाव में आ कर ऐसे काम करने पड़ते है।
- उन्हें अपनी ज़िन्दगी चलानी होती है। इस लोग ना ही किसी के दबाव में होते है और ना ही इनका सामाजिक बाहिष्कार किया गया होता है। पर इनकी मजबूरी होती है। इनके हालात ही ऐसे होते है कि ये मजबूर हो जाते है गलत काम करने पर।
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अब हर कोई सही और गलत में फर्क जानता और समझता है। बात सिर्फ इतनी है कि हम गलत चीज़ के शायद रुक भी जाए पर सही काम करने से क्यों रुकते है? हमे मालूम है कि ये डर सिर्फ एक डर है, इसलिए इसका असर हम पर नहीं होता। डर ने हम को तो काबू किया ही हुआ है, पर हमने तो इस डर को नज़रअंदाज़ ही कर दिया।
कुछ स्थितियों में ये डर हमे कमज़ोर बना देता है। इतना कमज़ोर की हम गलत चीज़ सहते रहते है। आवाज़ उठाने से इतना डरते है, क्योंकि उसका परिणाम कुछ भी हो सकता है। और शायद कुछ इतना भयानक भी की हम अपने सही कदम को भी गलत मानना शुरू कर देते है। अब उदहारण के लिए, जब कोई आवारा किसी लड़की को छेड़ता है, तब मन तो करता है कि उस लड़के को एक अच्छा सा सबक सिखाया जाए। पर वो लड़की बिना कुछ बोले, आँखे नीचे झुकाए वहां से चली जाएगी। वो इसलिए क्योंकि उसके दिमाग में यही बात घूमती रहेगी कि अगर उसने कुछ बोला तो वह लड़का ना जाने किस तरह से प्रतिक्रिया दे।
ये परिस्तिथि का दर हम सभी में होता है। और ज़्यादातर लड़कियां इसी डर के साथ ना जाने कितने ही जुर्म सहती रहती है। कार्यक्षेत्रो में कोई भी छोटे पद का व्यक्ति अपने से ऊपर पद के व्यक्ति के खिलाफ कभी कुछ नहीं बोलता क्योंकि उसको भय होता है कि ना जाने उसके इस कदम का क्या परिणाम होगा। वो गलत के खिलाफ सही आवाज़ उठाता है और फिर भी उसके साथ गलत होता है। हम सभी सही और गलत में फर्क करना समझते है पर इस परिणाम के डर के अनुसार क्या सही है और क्या गलत, ये तय करना बहुत मुश्किल होता है। ये डर हमे जितनी ताकत देता है, उतना ही कमज़ोर भी बनाता है। ये परिणाम का डर हमें जितना समझदार बनाता है, उतना ही लाचार भी बनाता है।