Legislature vs Judiciary: न्यायपालिका और सरकार में छीड़ी जंग, जानें किस मुद्दे पर बिगड़ी बात
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Legislature vs Judiciary: न्यायपालिका पर धनखड़ की टिप्पणी, कांग्रेस ने कहा खतरे में लोकतंत्र
Highlight
. कॉलेजियम सिस्टम वह प्रक्रिया है जिससे सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति और तबादले किए जाते हैं।
. केंद्रीय क़ानून मंत्री किरेन रिजिजू ने जजों की नियुक्ति करने की पूरी प्रक्रिया को ही ‘संविधान से परे’ बता दिया।
. सिब्बल ने कहा कि सरकार न्यायपालिका पर कब्जा करने का प्रयास कर रही है।
Legislature vs Judiciary: सरकार और न्यायपालिका के बीच तनातनी की शुरूआत साल 2014 से हो रही है। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जब देश में एनडीएन सरकार बनी तो केंद्र सरकार साल 2014 में ही संविधान में 99वाँ संशोधन करके नेशनल ज्यूडिशियल अप्वाइंटमेंट कमीशन (एनजेएसी) अधिनियम लेकर आई। इसमें सरकार ने कहा कि चीफ़ जस्टिस और सुप्रीम कोर्ट- हाई कोर्ट में जजों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम की जगह अब एनजेएसी के प्रावधानों के तहत काम हो।
बीते साल 25 नवंबर को केंद्रीय क़ानून मंत्री किरेन रिजिजू ने जजों की नियुक्ति करने की पूरी प्रक्रिया को ही ‘संविधान से परे’ बता दिया। केंद्रीय कानून मंत्री ने याद दिलाने की कोशिश की कि “सुप्रीम कोर्ट ने अपनी समझ और कोर्ट के ही आदेशों को आधार बनाते हुए कॉलेजियम बनाया है।
दरअसल सरकार हाईकोर्टों में जजों की नियुक्ति व तबादले के मुद्दे पर कालेजियम की सिफारिशों पर चुप्पी साधे बैठी है। सुप्रीम कोर्ट ने साफ कह दिया है कि अगर सरकार ने मजबूर किया तो अदालत उससे टकराव से नहीं हिचकेगी।
वहीं देश के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने पिछले बुधवार को कहा कि न्यायिक मंचों से दूसरों पर हावी होना और सार्वजिक रूप से दिखावा करना अच्छा नहीं है। इन संस्थानों को पता होना चाहिए कि खुद को कैसे संचालित करना है। कॉलेजियम प्रणाली के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी के बाद धनखड़ ने न्यायपालिका की आलोचना की थी।
राज्यसभा सांसद और पूर्व केंद्रीय कानून मंत्री कपिल सिब्बल ने रविवार को सरकार पर गंभीर आरोप लगाया है। सिब्बल ने कहा कि सरकार न्यायपालिका पर कब्जा करने का प्रयास कर रही है। उन्होंने कहा कि सरकार ऐसी स्थिति बनाने की पूरी कोशिश कर रही है, जिसमें एक बार फिर से सुप्रीम कोर्ट में दूसरे स्वरूप में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) का परीक्षण किया जा सके।
धनखड़ की टिप्पणी पर प्रतिक्रिया पूछने पर सिब्बल ने कहा, जब एक उच्च संवैधानिक प्राधिकारी और कानून के जानकार व्यक्ति इस तरह की टिप्पणी करते हैं, तो सबसे पहले यह सवाल पूछना चाहिए कि क्या वह व्यक्तिगत राय रख रहे हैं या सरकार की ओर से बोल रहे हैं।
आपको बताए कॉलेजियम सिस्टम वह प्रक्रिया है जिससे सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति और तबादले किए जाते हैं। कॉलेजियम शब्द आपको सुनने में तकनीकी लग सकता है। लेकिन इसे समझना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि इसी से तय होगा है कि आपके यानी आम नागरिक के मौलिक अधिकारों की रक्षा करने वाली संस्था न्यायपालिका को कौन और कैसे चलाएगा।
कॉलेजियम भारत के चीफ़ जस्टिस और सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठतम जजों का एक समूह है। ये पाँच लोग मिलकर तय करते हैं कि सुप्रीम कोर्ट में कौन जज होगा। ये नियुक्तियाँ हाई कोर्ट से की जाती हैं और सीधे तौर पर भी किसी अनुभवी वकील को भी हाई कोर्ट का जज नियुक्त किया जा सकता है।
हाई कोर्ट में जजों की नियुक्ति भी कॉलेजियम की सलाह से होती है जिसमें सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस, हाई कोर्ट के चीफ़ जस्टिस और राज्य के राज्यपाल शामिल होते हैं। कॉलेजियम बहुत पुराना सिस्टम नहीं है और इसके अस्तित्व में आने के लिए सुप्रीम कोर्ट के तीन फ़ैसले ज़िम्मेदार हैं जिन्हें ‘जजेस केस’ के नाम से जाना जाता है।
लोकतंत्र के चार में से दो स्तंभों यानी कार्यपालिका और न्यायपालिका में यह टकराव बीते आठ महीनों से चल रहा है। अदालत में लंबित मामले तो तेजी से बढ़ ही रहे हैं। लेकिन जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया पर विवाद के चलते कामकाज का बोझ भी तेजी से बढ़ रहा है। दरअसल असली मुद्दा सुप्रीम कोर्ट और विभिन्न हाईकोर्टों में जजों की नियुक्ति के तरीके का है।
यह समझना ज़रूरी है कि संविधान में जजों की नियुक्ति को लेकर क्या कहा गया है? संविधान में इसका कुछ विवरण दिया गया है कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति कैसे हो। इसके अनुसार, सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के वरिष्ठ जजों से विचार-विमर्श करके ही राष्ट्रपति जजों की नियुक्ति करेंगे।
संविधान का अनुच्छेद 217 कहता है कि राष्ट्रपति हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति के लिए चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया, राज्य के राज्यपाल और हाई कोर्ट के चीफ़ जस्टिस से विचार-विमर्श करके निर्णय करेंगे। कोर्ट ने संविधान में लिखे शब्द ‘कंसल्टेशन’ की व्याख्या ‘सहमति’ के रूप में की यानी विचार-विमर्श को सीजेआई की ‘सहमति’ माना गया।