Bengal elections 2021: विधानसभा चुनाव में बांग्ला और गैर-बांग्ला भाषा का गणित बंगाल पर कितना प्रभाव डालेगा?
दीदी ने पहले दिया बांग्ला वाद को बढावा अब कर रही हैं हिंदी भाषियों को लुभाने की कोशिश…
Bengal elections 2021: आगामी विधानसभा चुनाव के लिए भारतीय जनता पार्टी ने तीसरे और चौथे चरण के उम्मीदवारों की घोषणा की कर दी है। इस विधानसभा चुनाव में भाजपा और तृणमूल आमने-सामने हैं। इसके अलावा कांग्रेस, लेफ्ट फ्रंट और एसएफआई के संयुक्त मोर्चा के अलावा कई अन्य पार्टियों ने शिरकत की है। इस बीच बंगाल में पार्टियों द्वारा बंगाली बनाम गैर बंगाली को लुभाने की पुरजोर कोशिश की जारी है। अब देखना है कि यह मामला आने वाले चुनाव में कितना प्रभाव डालती है। आज काम की बात में हम इस पर ही चर्चा करेंगे।
भाषा के आधार पर बंटवारा
विधानसभा चुनाव की तारीखों के ऐलान से पहले ही जनवरी में बंगाल की सत्ताधारी पार्टी तृणमूल कांग्रेस द्वारा 500 टूटी फूटी हिंदी बोलने वाले लोगों को एकत्र किया गया। जहां मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने सभा को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री और गृहमंत्री पर निशाना साधा। अपने भाषण के दौरान उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री और गृहमंत्री अपना भाषण गुजराती में लिखवाते हैं और टेलीप्रोम्टर द्वारा हिंदी में पढ़ते हैं। जबकि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री अपना भाषण बांग्ला में देती है लेकिन वह लिखा हिंदी में होता है। मुख्यमंत्री की इन बातों से स्पष्ट है कि बंगाल की मुख्यमंत्री हिंदी भाषी जनता को चुनाव के दौरान यह साफ संदेश देना चाहती है कि वह बीजेपी की नीतियों को भाषा के आधार पर सफल नहीं होने देंगी। इस बात को आसनसोल साउथ से तृणमूल कांग्रेस उम्मीदवार सायनी घोष ने भी हिंदी पट्टी में चुनाव प्रचार के दौरान कहा कि बंगाल की संस्कृति भाईचारे की है। हम किसी को भी भाषा, जाति, धर्म के आधार लोगों को बांटने नहीं देंगे।
साल 2019 के लोकसभा चुनाव का असर
विधानसभा चुनाव से पहले हिंदी बेल्ट में लगातार बढ़ती बीजेपी की लोकप्रियता तृणमूल के लिए चुनौती बनती जा रही है। दरअसल साल 2019 के चुनाव से पहले मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भाषण के दौरान कहा था कि “ अगर किसी को बंगाल में रहना है तो बांग्ला बोलना ही पड़ेगा”। इस बात का सीधा असर हिंदी बेल्ट के वोटों पर पड़ा। पश्चिम बंगाल में लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने 18 सीट जीतकर यह साबित कर दिया कि वह बंगाल में भी अपने किले को मजबूत करने जा रही है। जिन सीटों पर बीजेपी ने जीत हासिल की उनमें ज्यादातर हिंदी बेल्ट की थी। जिसमें प्रमुख रुप से आसनसोल, रानीगंज, बारासात, मा
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क्या कहता हैं सर्वे?
सर्वे की बात करें तो बंगाल में बांग्ला और गैर बांग्ला भाषी के बीच एक बड़ा गैप है। प्रदेश की राजधानी में कोलकाता में देश के अन्य हिस्सों से काम करने के लिए लोग आते हैं। जिसके कारण यहां गैर बांग्ला भाषी लोग ज्यादा रहते हैं। इंडिया टुडे एक सर्वे के अनुसार सेंट्रल कोलकाता में 22.8%, हावडा में 11.3%, जलपाईगुडी 20.3%, उत्तर दिनाजपुर 17%, दार्जिलिंग 17.3%, बर्दवान 11.4%, हुगली 8%, आसनसोल 12% हिंदी भाषी लोग रहते हैं।
प्रांतीयता को बढ़ावा
बंगाल में हिंदू और मुस्लिम वोटों के समीकरण के आधार पर ही गृहमंत्री अमित शाह ने 200 सीटों की जीत का ऐलान किया है। वहीं दूसरी ओर तृणमूल कांग्रेस प्रांतीयता को बढ़ावा दे रहा है। इस बारे में प्रदीप सुमन कहते हैं कि बंगाल में बंगाली वाद को बहुत ज्यादा हवा दी गई है। इस दौरान गैर बंगालियों की स्थिति वैसे ही है जैसे बीजेपी में मुसलमानों की स्थिति है। वह भले ही आरएसएस के अल्पसंख्यक विंग के अध्यक्ष होते हैं लेकिन उनका कद उतना बड़ा नहीं होता है, जितना बाकी लोगों का होता है। वह बताते है कि बंगाल में बांग्ला को बढ़ावा देने के लिए गैर बांग्ला भाषियों को यह फरमान दिया गया है कि वह अपनी दुकान के बाहर अपनी दुकान का नाम बंगला में लिखें। अगर वह ऐसा नहीं करते हैं तो उन्हें ट्रेंड लाइसेंस नहीं दिया जाएगा। इन बातों से यह स्पष्ट होता है कि बंगाल में बांग्ला को ही तवज्जो दिया जा रहा हैं। जिसका साफ असर वोट में भी देखने को मिलेगा क्योंकि यह प्रांतीयता के आधार पर लोग बंगाल में बंगाली प्रतिनिधि को ही चाहेंगे। जबकि बीजेपी ने तो अभी तक अपने मुख्यमंत्री चेहरे के नाम का खुलासा भी नहीं किया है।
हिंदी भाषी लोगों का बीजेपी में शामिल होना
वरिष्ट पत्रकार प्रदीप सुमन बंगाल की राजनीति के बारे में बात करते हुए कहते हैं कि बंगाली लोगों को संतुष्ट करने के लिए तृणमूल ने इलेक्ट्रॉल लेवल पर गैर-बंगाली नेताओं में कटौती की है। ऐसा नहीं है कि उन्हें सीधे तौर पर पार्टी से निकाला गया है। लेकिन उन्हें पार्टी में कुछ इस तरह परेशान किया गया कि उन्होंने स्वयं ही पार्टी छोड़कर कहीं और शरण ले ली। ऐसे समय में जब लोग पार्टी छोड़कर रहे हैं तो किसी भी हिंदी भाषी नेता के लिए बीजेपी ही सबसे बेहतर विकल्प बचता है। वह कहते हैं आप देख सकते हैं आसनसोल के पहले गैर बांग्ला भाषी मेयर जितेंद्र तिवारी ने पार्टी का थामन छोड़ बीजेपी का हाथ थाम लिया है। इससे पहले भी वह पार्टी पर कई तरह के इल्जाम लगा चुके हैं। बंगाल की राजनीति में कई हिंदी भाषी पार्टी से छोटे से छोटे पद को छोड़कर बीजेपी में शामिल हुए हैं।
बीजेपी की रणनीति
कुछ सालों पहले ममता बनर्जी के काफिले के सामने नैहाटी में कुछ लोगों ने ‘जय श्री राम’ के नारे लगाए थे। उस वक्त दीदी ने इन लोगों को ‘बाहरी’ करार दिया था। इस बात को अब बीजेपी भुनने की कोशिश कर रही है। वहीं दूसरी ओर ममता दीदी लोगों के जहन में यह बात डालने की कोशिश कर रही है कि यदि हिंदी भाषी लोगों को गिनती बढ़ती जाती है तो इससे बंगाली संस्कृति पर असर पडेगा। धीरे-धीरे बंगाली संस्कृति खतरे में पड़ सकती है। दीदी इस धुव्रीकरण के आधार पर बंगाल में राजनीति कर रही है। आंकडों की माने तो प्रदेश में 100 मिलियन जनता बाहरी है। जिनकी भाषा मुख्य रुप से हिंदी और उर्दू है। बीजेपी ने पहले ही लोगों को धर्म के आधार पर बांट दिया है। अब वह बंगाल में गैर बांग्ला भाषी वोट को अपने तरफ लाना चाहती है। इस बारे में प्रदीप सुमन कहते हैं कि बीजेपी ने जिन 200 सीटों का जिक्र किया है। उसका गणित इस प्रकार है। प्रदेश में लगभग 27 प्रतिशत मुस्लिम है। इस हिसाब से वह 294 सीटों का 30 प्रतिशत लगभग 100 के आसपास है। अगर बीजेपी इस 100 सीटों को छोड़ दे तो बाकी की बीच 70 प्रतिशत की आबादी के आधार पर 200 सीटें जीतने की संभावना जता रही है। इस बात से वह हिंदू वोटर्स को अपने पक्ष में करना चाहती है ताकि वह दो प्रतिशत के अंतर को पूरा कर सके।
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