Mahabharat Katha: महाभारत युद्ध खत्म होने के बाद भी 42 दिनों तक बाणों की शैय्या पर लेटे रहे थे भीष्म पितामह, किसने दिया था इच्छा मृत्यु का वरदान
Mahabharat Katha: महाभारत में भीष्म पितामाह को इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था। इस कारण तीरों की शैय्या पर होने के बावजूद भीष्म कई दिनों तक जीवित रहे। उन्होंने दुर्योधन को समझाने की कोशिश की लेकिन दुर्योधन ने उनकी बात नहीं मानी। पितामह के मृत्यु की शैय्या पर लेटे होने बाद भी आठ दिनों तक लगातार युद्ध चलता रहा।
Mahabharat Katha: राजा शांतनु और देवी गंगा के पुत्र थे भीष्म पितामह, पापों का प्रायश्चित करने के लिए सह रहे थे 10,000 बिच्छुओं के डंक के बराबर की पीड़ा
महाभारत के युद्ध के बारे में तो आप जानते ही होंगे। कौरवों और पांडवों के बीच कुरुक्षेत्र में हुआ ये युद्ध 18 दिनों तक चला था। इस युद्ध में पहले 10 दिनों तक कौरवों की ओर से भीष्म पितामह सेनापति थे। 10वें दिन अर्जुन ने शिखंडी को ढाल बनाकर भीष्म पर तीरों की वर्षा कर दी। अर्जुन के तीरों से छलनी भीष्म पितामह बाणों की शय्या पर आ गए। लेकिन भीष्म पितामह की मृत्यु नहीं हुई, क्योंकि उन्हें इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त था। Mahabharat Katha अपनी देह का त्याग करने के लिए भीष्म पितामह ने उत्तरायण का इंतजार किया था। माघ माह की अष्टमी के दिन उन्होंने अपनी देह का त्याग किया था। ताे आज हम आपको इस लेख में भीष्म पितामह से जुड़ी सारी बातें बताएंगे। तो आइए जानते हैं विस्तार से-
दरअसल भीष्म पितामह ने हस्तिनापुर को सुरक्षित हाथों में देखकर ही मृत्यु का वरण करने की प्रतिज्ञा ली थी। महाभारत युद्ध 18 दिन में पूरा होने के साथ ही हस्तिनापुर पर युधिष्ठिर राजा बन गए। Mahabharat Katha बावजूद इसके भीष्म ने मृत्यु का वरण नहीं किया, बल्कि वह भयानक कष्ट सहते हुए 42 दिनों तक सरशैय्या पर पड़े रहे। ऐसे सवाल उठता है कि 12 भागवतों में से एक देवव्रत भीष्म को ऐसा करने की क्या जरूरत थी। इसका जवाब भी खुद भीष्म ने अपने जीवन के आखिरी दिन दिया था।
पापों का प्रायश्चित करने के लिए जिंदा रहे भीष्म Mahabharat Katha
उन्होंने कहा कि वह 42 दिन केवल उसी पाप का प्रायश्चित करने के लिए जिंदा रहे हैं, जो उनकी आंखों के सामने हुआ था और वह उसे रोक नहीं पाए थे। श्रीमद भागवत कथा के मुताबिक, महाभारत युद्ध खत्म हुए 34 दिन गुजर चुके थे। हस्तिनापुर में राजतिलक के बाद मकर संक्रांति के दिन युधिष्ठिर भगवान श्री कृष्ण के साथ भीष्म के दर्शन के लिए कुरुक्षेत्र पहुंचे। वहां भगवान कृष्ण ने भीष्म से आग्रह किया कि वह युधिष्ठिर को राजधर्म सिखाएं।
उपदेश सुनकर हंस पड़ीं द्रोपदी Mahabharat Katha
इस आग्रह को स्वीकार कर भीष्म युधिष्ठिर समेत सभी पांडवों को बिल्कुल ध्यान केंद्रित करने को कहा और उपदेश शुरू कर दिया। इसी दौरान भीष्म ने कहा कि एक क्षत्रिय को कभी पाप होते नहीं देखना चाहिए। ऐसा करना बड़ा पाप है और इस पाप को रोकने में यदि उसकी गर्दन भी कट जाए तो उसकी परवाह नहीं करनी चाहिए। भीष्म यह उपदेश दे ही रहे थे कि पांडवों के साथ खड़ीं द्रोपदी हंस पड़ीं। उनको हंसते देख भीष्म ने अपना उपदेश रोक दिया। द्रोपदी से गंभीर विषय के बीच हंसने की वजह पूछी।
भीष्म की आंखों से छलक पड़े आंसू Mahabharat Katha
द्रोपदी ने कहा कि जो उपदेश वह पांडवों को दे रहे हैं, वह खुद ऐसा कर चुके हैं। यह कहते हुए द्रोपदी ने भीष्म को उन पलों की याद दिलाई, जब भीष्म की मौजूदगी में दुशासन चीर हरण कर रहा था। द्रोपदी ने कहा कि उन्हें भले ही यह दृष्य ना दिखा हो, लेकिन उसने तो उनका नाम लेकर मदद की गुहार लगाई थी। बावजूद इसके वह राज्यसभा में चुप्पी साध कर बैठे रहे। यह सुनकर भीष्म की आंखों से आंसू छलक पड़े।
10,000 बिच्छुओं के डंक के बराबर पीड़ा झेलते रहे भीष्म Mahabharat Katha
भीष्म पितामह ने कहा कि द्रोपदी बिल्कुल सही कह रही है। उनके जीवन में यह पाप हुआ था और इसी पाप का प्रायश्चित करने के लिए वह 52 दिनों तक सरशैय्या पर लेटे लेटे 10 हजार बिच्छुओं के डंक के बराबर पीड़ा को झेल रहे हैं। बता दें कि महाभारत युद्ध 18 दिन चला था। इस युद्ध में 10 दिनों तक खुद पितामह भीष्म कौरव सेना के सेनापति थे। 10 दिन वह धराशायी हो गए। इसके बाद सेनापति की जिम्मेदारी गुरु द्रोण को दी गई थी।
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श्री कृष्ण के सुंदर स्वरूप का दर्शन कर त्याग दिया देह Mahabharat Katha
इस घटना के 8 दिन बाद तक महाभारत का युद्ध चला। इसी आठ दिन में सभी कौरव वीर गति को प्राप्त हो गए और हस्तिनापुर पर युधिष्ठिर का राज हो गया। बावजूद इसके 34 दिन बाद तक भीष्म पितामह जीवित रहे और मकर संक्रांति की बेला में भगवान कृष्ण के सुंदर स्वरूप का साक्षात दर्शन करते हुए उन्होंने देह त्याग किया था। पौराणिक कथा के अनुसार भीष्म पितामह राजा शांतनु और देवी गंगा के पुत्र थे।
देवी गंगा के पुत्र थे भीष्म Mahabharat Katha
उनके जन्म के बाद देवी गंगा ने उन्हें देव व्रत नाम दिया गया था। देव व्रत ने महर्षि पशुराम से शास्त्र विद्या प्राप्त की, जिसके बाद देवी गंगा देव व्रत के उनके पिता राजा शांतनु के पास ले गईं थीं। राजा शांतनु ने देव व्रत को हस्तिनापुर का राजकुमार घोषित कर दिया। कुछ दिन गुजरने के बाद राजा शांतनु को सत्यवती नाम की एक एक स्त्री से प्यार हो गया और उन्होंने उनसे विवाह करने का मन बना लिया, लेकिन सत्यवती के पिता ने राजा शांतनु से विवाह करने के लिए एक शर्त रख दी।
पिता ने दिया था इच्छा मृत्यु का वरदान Mahabharat Katha
शर्त के मुताबिक राजा शांतनु और उनकी बेटी सत्यवती का पुत्र ही हस्तिनापुर का उत्तराधिकारी बनेगा। तभी वह अपनी बेटी का हाथ राजा शांतनु के हाथ में देंगे। अपने पिता पर आए इस धर्म संकट को देखते हुए देव व्रत ने पिता के प्यार की खातिर अपना राज्य त्याग कर पूरे जीवन शादी ना करने का प्रण ले लिया था। ऐसे भीष्म प्रण और प्रतिज्ञा के कारण ही देवव्रत का नाम भीष्म हो गया। यह सब देखने के बाद राजा शांतनु अपने बेटे से प्रसन्न हुए और उनको इच्छा मृत्यु का वरदान दिया।
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