Dulha-Dulhan Mandi: यहां मां-बाप खुद बेचते हैं अपने बच्चों के रिश्ते, जानें कैसी है दूल्हा-दुल्हन मंडी की हकीकत?
Dulha-Dulhan Mandi, भारत सहित कुछ अन्य एशियाई देशों में एक चिंताजनक सामाजिक प्रथा देखने को मिलती है जिसे कभी-कभी “दूल्हा-दुल्हन मंडी” कहा जाता है।
Dulha-Dulhan Mandi : यहां रिश्ते नहीं बिकते, बल्कि ‘चुने’ जाते हैं, दूल्हा-दुल्हन मंडी का चौंकाने वाला सच
Dulha-Dulhan Mandi, भारत सहित कुछ अन्य एशियाई देशों में एक चिंताजनक सामाजिक प्रथा देखने को मिलती है जिसे कभी-कभी “दूल्हा-दुल्हन मंडी” कहा जाता है। इसका तात्पर्य उस तरह की व्यवस्था से है जहाँ शादी एक समकक्ष रिश्ते की शुरुआत की बजाय, वस्तु लेन-देन या बाज़ार की तरह सामने आती है। सरल शब्दों में कहें तो, विवाह की जगह-विराजमान पवित्रता, सहमति और समानता- जैसी बातें पीछे छूट कर इस रूप में सामने आती हैं जैसे कि शादी-नामे की जगह “वित्तीय लेन-देन” का आयाम हो गया हो। इस लेख में हम इस सामाजिक समस्या-प्रथा की विवेचना करेंगे इसकी शुरुआत, चलते रूप, प्रभाव और सामाजिक समाधान।
1. आरंभिक परिप्रेक्ष्य: क्यों बनी यह समस्या?
भारत में कुछ इलाकों में लड़कियों की संख्या कम होना, पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना और विवाह को सामाजिक-आर्थिक सौदा मानने की प्रवृत्ति इस प्रथा की जड़ में हैं। उदाहरण के लिए, “ब्राइडबाइंग” (Bride Buying) नामक प्रथा में यह देखा गया है कि कुछ राज्यों-जैसे हरियाणा, झारखंड एवं पंजाब में पुरुषों को विवाह योग्य लड़की नहीं मिल पा रही, जिससे उन्हें मनपसंद लड़की के बजाय बाज़ार से “लड़की खरीदने” की ओर धकेला जा रहा है। ऐसे में विवाह-मण्डप एक ऐसा स्थान बन जाता है जहाँ संकेत और प्रतीक ही भूमिका निभाते हैं चयन, सौदा, लेन-देन। इसे कुछ लोग ‘मंडी’ कह देते हैं क्योंकि यहाँ रिश्ते की जगह चयन-प्रक्रिया-से-गुणवत्ता-से-शादी-तक एक बाज़ार-मोड महसूस होती है।
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2. “मंडी” जैसा माहौल: चुनौतियाँ और दृश्य
दूल्हा-दुल्हन मंडी का अर्थ सिर्फ लेन-देन नहीं है, बल्कि यह सामाजिक असमानताओं, लिंग-अनुपात की कमी, दलाली का नेटवर्क और पारिवारिक दबाव का परिणाम भी है।
- उदाहरण के लिए, झारखंड जैसे राज्य में “परोस” नामक प्रथा में लड़कियों को एक राशि देकर शादी के लिए लिया जाता है।
- हरियाणा में ऐसे मामलों की शिकायतें आई हैं जहाँ लड़कियों की कमी के चलते दलाल “खरीदकर लाए” गए दुल्हन-मॉडल बना रहे हैं।
- इस तरह की व्यवस्था में लड़कियों के चयन, मूल्यांकन और सौदे संबंधी व्यवहार-शैली इस मंडी-मॉडल को पुष्ट करती है।
ऐसे दृश्य-परिदृश्यों में विवाह का पवित्र रूप मिटता जा रहा है और रिश्ते की जगह “वस्तु विनिमय” जैसा रूप देखना शुरू हो गया है।
3. सामाजिक–मानवाधिकारीय पर प्रभाव
यह प्रथा लड़कियों और महिलाओं को वस्तु के रूप में देखती है उनकी स्वीकार्यता, चयन और स्वीकारोक्ति बाज़ार-मानक बन गई है। इससे कुछ महत्वपूर्ण प्रभाव सामने आते हैं:
- महिलाओं की स्वायत्तता एवं सहमति (consent) कमजोर होती है।
- विवाह के बाद उत्पीड़न, धोखाधड़ी (जैसे “लुटेरी दुल्हन” के मामले) का जोखिम बढ़ जाता है। (The Times of India)
- सामाजिक प्रतिष्ठा का दबाव और विवाह न होने की समस्या पुरुषों-परिवारों पर अतिरिक्त बोझ बन रहा है।
- लिंग-अनुपात एवं लड़कियों की कमी जैसे सामाजिक मुद्दे इस मंडी-प्रथा को जन्म देते हैं।
4. क्या हो सकता है समाधान?
इस समस्या से निपटने के लिए जागरूकता, कानून-व्यवस्था और सामाजिक बदलाव की आवश्यकता है:
- साक्षरता और जागरूकता बढ़ाई जानी चाहिए ताकि विवाह सिर्फ सामाजिक–रसम-मय नहीं बल्कि सम्मान-आधारित हो।
- लड़कियों की संख्या और शिक्षा में सुधार हो ताकि उन्हें विकल्प और सम्मान मिले, न कि आर्थिक लेन-देन की वस्तु बनी रहें।
- विवाह के दायरे में स्वैच्छिक सहमति (consent) और समानाधिकार पर बल देना होगा।
- राज्यों को दलाली नेटवर्क और मानव-वکنند शोषण पर रोक लगानी होगी।
- सामाजिक प्रतिष्ठा बनाम विवाह दबाव की मानसिकता को बदलने की दिशा में परिवार-स्तर पर काम होना चाहिए।
दूल्हा-दुल्हन मंडी नामक यह प्रथा न सिर्फ एक विचलित सामाजिक व्यवहार है, बल्कि यह सम्मानित विवाह-संस्कार की गरिमा को भी प्रभावित करती है। विवाह जब जीवन-साथी चुनने का अवसर हो, न कि वस्तु-चुनाव का बाज़ार तभी समाज, परिवार और व्यक्तिगत स्तर पर सच्चा समाधान संभव है। इसलिए जरूरी है कि हम इस तरह की “मंडी-मानसिकता” से आगे बढ़ें, और विवाह को मेल-जोल, प्रेम-सम्मान और समानता के मूल्यों से जोड़ें। तभी शादी-रिश्तों में सच-मगर स्थायित्व और सामाजिक संतुलन संभव होगा।
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