Batukeshwar dutt death anniversary: क्रांति का सिपाही, गुमनामी का शिकार: बटुकेश्वर दत्त की अनकही दास्तान
भगत सिंह के साथी और सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने वाले क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त की पुण्यतिथि पर जानें, कैसे आज़ादी के बाद उन्हें संघर्ष और उपेक्षा का सामना करना पड़ा
Batukeshwar dutt death anniversary: देशभक्ति की आग जिसने बटुकेश्वर को क्रांतिकारी बना दिया
Batukeshwar dutt death anniversary: बटुकेश्वर दत्त एक ऐसा नाम जिसे हम अक्सर भगत सिंह के साथ जोड़ते है। लेकिन यह क्रांतिकारी आजादी के बाद गुमनामियों में खो गया। यह भगत सिंह के सबसे खास और करीबी मित्र में एक थे। जिनको सबसे ज्यादा 8 अप्रैल 1929 मे दिल्ली के सेंट्रल असेंबली मे हुई बम फेकनें की ऐतिहासिक घटना के लिए जाना जाता है। वे केवल एक बम फेंकने वाले क्रांतिकारी नहीं थे, बल्कि एक विचारधारा के वाहक, न्याय और आज़ादी के लिए अपने जीवन की आहुति देने वाले योद्धा थे। आज वे हमें यह याद दिलाते हैं कि स्वतंत्रता केवल जीतने की नहीं, निभाने की भी जिम्मेदारी है।
क्रांति की राह पर पहला कदम
बटुकेश्वर दत्त जब कॉलेज में पढ़ाई कर रहे थे, तभी उनके अंदर देशभक्ति की भावना जा गई। 1924 में उनकी मुलाकात भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद से हुई, जिससे उनकी जिंदगी पूरी तरह बदल गई। इसके बाद वे हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन नाम के क्रांतिकारी संगठन से जुड़ गए और आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा लेने लगे।
भगत सिंह के सबसे करीबी
बटुकेश्वर दत्त न सिर्फ भगत सिंह के साथी थे, बल्कि उनके बेहद प्रिय मित्र भी थे। जब सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने की योजना बनी, तो भगत सिंह यह जानते थे की इस घटना के बाद वे गिरफ्तार हो जाएंगे। इसके बाद भी भगत सिंह ने दत्त को ही चुना अपने साथी के रूप में । 8 अप्रैल 1929 मे दोनों ने मिल असेंबली मे बम फेंका, बिना किसी को नुकसान पहुचाएं। यह ब्रिटिश सरकार के लिए एक चेतावनी भरा संदेश था। जिसके बाद दोनों की गरिफ़्तरी हुई और आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई।
सेल्युलर जेल से गांधी के आंदोलन तक
दत्त को आजीवन कारावास की सज़ा हुई और उन्हें कुख्यात अंडमान की सेल्युलर जेल भेजा गया। 1938 में रिहा होने के बाद उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लिया और दोबारा चार साल की जेल काटी। हालांकि, उन्हें यह अफ़सोस जीवन भर रहा कि वे भगत सिंह की तरह देश के लिए शहादत नहीं दे सके।
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आज़ादी के बाद का संघर्ष
भारत को 1947 में आज़ादी तो मिल गई लेकिन दत्त के जीवन का संघर्ष खत्म नहीं हुआ। दत्त पटना में बस गए और वहां पर सिगरेट कंपनी के एजेंट के रूप मे काम किया तो कभी टूरिस्ट गाइड की नौकरी करनी पड़ी। दत्त की पत्नी अंजली एक निजी स्कूल मे पढ़ाने का काम करती थी ताकि घर अच्छे चल सके। और हैरानी की बात यह है कि जब उन्होंने पटना में बस परमिट के लिए आवेदन किया तो उनसे स्वतंत्रता सेनानी होने का प्रमाण मांगा गया! राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के हस्तक्षेप के बाद ही अफसर ने माफ़ी मांगी।
बिना सम्मान, बिना इलाज
1964 में वे गंभीर रूप से बीमार पड़े, लेकिन पटना के सरकारी अस्पताल में कोई पूछने नहीं आया। जब उनके मित्र और लेखक चमनलाल ने अख़बार में लिखा — “क्या बटुकेश्वर दत्त जैसे क्रांतिकारी को भारत में जन्म लेना चाहिए?” तब जाकर सरकारें जागीं और इलाज की व्यवस्था की गई। 22 नवंबर 1964 को उन्हें दिल्ली लाया गया, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी। 17 जुलाई 1965 को वे कोमा में चले गए और 20 जुलाई को उनका निधन हो गया।
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