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कुशाभाऊ ठाकरे विश्वविद्यालय के नाम बदलने की प्रक्रिया: बीज तो पिछले 15 साल से ही बोया जा रहा था
काम की बात

कुशाभाऊ ठाकरे विश्वविद्यालय के नाम बदलने की प्रक्रिया: बीज तो पिछले 15 साल से ही बोया जा रहा था

कुशाभाऊ ठाकरे विश्वविद्यालय के नाम बदलने की  प्रक्रिया: नाम मे क्या रखा है ?


महान कवि विलियम शेक्सपियर भले ही मानते हों कि नाम में क्या रखा है, लेकिन राजनीति के लिए नाम में ही बहुत कुछ रखा है।  पिछली सरकार(भाजपा) ने जब छत्तीसगढ़ में बिलासपुर विश्वविद्यालय को अटल बिहारी बाजपेयी विश्वविद्यालय एवं नया रायपुर का नाम बदल कर अटल नगर किया, तो लगा कि नामों की या नाम बदलने की राजनीति छत्तीसगढ़ में अभी रुकने वाली नहीं है। आश्चर्यजनक नहीं कि अस्मिता की राजनीति के लिए नाम का बहुत महत्व है, चाहे वह क्षेत्र, जाति, धर्म या किसी भी अन्य आधार पर की जाए। नामों का नाम वही बदल सकता है जो सत्ता में हो और अक्सर सत्ताधारी नेता और पार्टियां स्थानों का नाम बदलने का शॉर्टकट अपनाकर उसके द्वारा अपने राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति करती हैं।

प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू बुद्ध और उनके जीवन-दर्शन से बहुत प्रभावित थे। शायद इसीलिए स्वाधीनता प्राप्ति के बाद बनारस का नाम बदल कर वाराणसी कर दिया क्योंकि यही इसका प्राचीन नाम था और बौद्ध ग्रंथों में भी इसी नाम का उल्लेख मिलता है। इस कदम के पीछे किसी किस्म की अस्मिता की राजनीति नहीं थी लेकिन इसके कारण एक ऐसी परंपरा की शुरुआत हो गई जो आज तक जारी है। हाल यह  है कि  वाराणसी नाम अभी तक आम जनता के बीच स्वीकृति नहीं पा सका है। शहर को आज भी बनारस कहा जाता है और वहां के लोग अपने बनारसीपन पर गर्व करते हैं। उस्ताद बिस्मिल्लाह खां अपने बनारसीपन के बखान का एक भी मौका नहीं चुकते थे। धार्मिक हिंदू भले ही इसे काशी कहें, लेकिन आम लोग शहर को बनारस ही कहते हैं।

वाराणसी नाम केवल सरकारी कामकाज में इस्तेमाल होता है। बाद में जब अस्मिता की राजनीति ने जोर पकड़ा तो बंगाली उपराष्ट्रवाद को तुष्ट करने के लिए कलकत्ता कोलकाता बन गया, तमिल उपराष्ट्रवाद के चलते मद्रास चेन्नई और मराठी अस्मिता के कारण बंबई मुंबई हो गया। साथ ही शैक्षणिक संस्थानों की बात करें तो सागर विश्वविद्यालय डॉ. हरि सिंह गौर विश्वविद्यालय सागर, जबलपुर विश्वविद्यालय रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय जबलपुर, अब इलाहबाद विश्वविद्यालय का नाम बदलकर प्रयागराज विश्वविद्यालय रखा जा रहा हैं। क्योंकि नाम अस्मिता और इतिहास के परिक्षेत्र में घुसने का प्रवेश द्वार है।

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नाम हमें हमारे इतिहास से जोड़ता है, वह इतिहास चाहे व्यक्ति का इतिहास हो, समूह या समाज का इतिहास हो या धर्म का इतिहास हो। कई बार विभिन्न कारणों से धार्मिक इतिहास सामाजिक या समूह के इतिहास को अपने में समेट लेता है। फिर समूह या समाज के अन्य लोग भी अपने इतिहास को अपने धार्मिक या राजनैतिक इतिहास से जोड़कर देखने लगते हैं। नाम हमें हमारी स्मृतियों से जोड़ता है, साथ ही नई स्मृतियां सृजित भी करता है। यह हमारे मन मस्तिष्क में बार-बार आवृत हो दीर्घकालिक स्मृतियां सृजित करता है। दुनिया के दो अत्यन्त महत्वपूर्ण इतिहासकारों एरिक हॉब्स

बॉम और ट्रांस रेंजर ने नई स्मृतियों के निर्माण की प्रक्रिया को समझते हुए इन्वेशंन ऑफ ट्रेडिशन (परंपरा के आविष्करण) की चर्चा की है। उनका मानना है कि हम कई बार समकालीन और आधुनिक उत्पत्तियों को भी अपनी प्राचीन परंपरा से जोड़कर अपने लिए वैधता प्राप्त करते हैं।

इसी वैधता को प्राप्त करने के लिए पत्रकार चिन्तक आदरणीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी ने साल 2005 में कुशाभाऊ ठाकरे जी के नाम पर पत्रकारिता विश्वविद्यालय की स्थापना की। जिनके नाम बदलने की चर्चा छत्तीसगढ़ व देश के दुसरे क्षेत्रों में हो रही हैं, साथ ही नाम बदलने के विरोध में संघ के छात्र संघ इकाई एबीवीपी व विशेष विचारधारा के समर्थित पत्रकार, बीजेपी के राजनेता खुलकर सामने आ गये हैं। कुछ पत्रकारों ने यह सवाल उठाया है कि छात्रों के डिग्री पर सवाल उठ जायेगा, सवाल तो लगातार विश्वविद्यालय द्वारा प्रदान किये गये पीएचडी, एमफिल व पीजी के डिग्री को आप सभी को उठाने थे आप ने नहीं उठाये क्योंकि एक खास विचार धारा को स्थापित करना था चाहें वह गलत ही क्यों न हो। रही बात छात्रों के डिग्री प्रदान की गई डिग्री में नाम बदल जायेगा यह सवाल बिलासपुर विश्वविद्यालय से अटल बिहारी बाजपेयी विश्वविद्यालय बनने पर भी उठाने थे चूँकि अटल जी की स्वीकार्यता सार्वभौमिक हैं उनके नाम पर किसी भी राजनैतिक दल ने सवाल नहीं उठाये?

कुशाभाऊ ठाकरे जी के नाम पर पत्रकारिता विश्वविद्यालय के स्थापना पर पत्रकारों का एक बड़ा समूह सवाल उठाता रहा हैं। उनका कहना है कि कुशाभाऊ जी संघ प्रचारक एवं बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। यहां प्रश्न यह नहीं होना चाहिए की किनका किस क्षेत्र में कितना योगदान रहा है। सवाल स्थानीय स्वीकार्यता का होना चाहिए की स्थानीय जनता किसे स्वीकार कर रहीं हैं। विश्वविद्यालय अपने स्थापना के 15 साल का सफ़र तय कर रहा हैं। जहाँ केवल संघ की ब्रांडिंग नजर आती है जो अपने योग्य शिक्षकों, व्यवस्थित अध्ययनशालों व सुदृढ़ पुस्तकालय के आभाव में एक विचारधारा को पोषित करता नजर आया हैं। विश्वविद्यालय में आकादमिक गतिविधियों के जगह संघ के विचारधारा को बढ़ाने वाली गतिविधियों को ब्रांडिंग की गयी। विश्वविद्यालय को अपने संघी ब्रांडिंग से ऊपर उठकर समतावादी विचार को अपनाना होगा जो चंदूलाल चंद्राकर के पत्रकारिता एवं विचारों में रही हैं।

 नोट- इस आर्टिकल में सारे विचार लेखक के हैं। वन वर्ल्ड न्यूज का इनके विचारों से कोई लेनादेना नहीं है।

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