Unparliamentary Words: ‘असंसदीय शब्दों’ के इस्तेमाल पर जाने क्या हो सकती है कार्रवाई
संसद की गरिमा बनाए रखने की जिम्मेदारी हर 'माननीय' की होती है। ऐसे में सदन की कार्यवाही के दौरान 'असंसदीय शब्दों' के इस्तेमाल पर स्पीकर और सभापति महोदय इन शब्दों को कार्यवाही से हटा सकते हैं।
Unparliamentary Words: असंसदीय शब्दों के प्रयोग पर स्पीकर और सभापति कर सकते हैं ये काम
संसद में देश से चुने हुए लोग जाते हैं। करीब 135 करोड़ की विशाल आबादी में से 543 सदस्यों को लोकसभा के लिए जनता अपने क्षेत्रों से चुनकर भेजती है, तो वहीं राज्यसभा के लिए भी पार्टियों के द्वारा ( कुल 245) सदस्य सदन में भेजे जाते हैं। यही तरीका राज्यों के सदन पर भी लागू होता है। जो सज्जन असेम्बली या पार्लियामेंट में अपने क्षेत्रों का नेतृत्व करते हैं, बड़े ही सम्मान के साथ यह लोग ‘माननीय’ कहलाते हैं। ‘माननीय’ लोगों से यही आशा की जाती है कि यह लोग अपने-अपने हाउस की मान-मर्यादा और प्रतिष्ठा पर आंच नहीं आने देंगे। कुल मिलाकर इन महानुभावों से आम आदमी यही उम्मीद लगाता है कि ये सदन में उसके मुद्दों की आवाज बनेंगे और अपने ‘शब्दों’ में संसदीय प्रणाली की प्रतिष्ठा को बनाए रखने का प्रयास करेंगे।
पिछले साल लोकसभा सचिवालय की तरफ से कुछ विशेष शब्दों को ‘असंसदीय’ शब्दों की सूची में डाला गया। इन शब्दों में पार्लियामेंट के दोनों सदनों के अलावा राज्य विधानसभाओं के कार्यवाही से छांट कर हटाए गए शब्द हैं। कहते हैं कि जब समाज में ‘असामाजिक’ चीजें घटती हैं, जुर्म होता है, तब समाज के खिलाफ होने वाली घटनाओं पर रोक लगाने के लिए इसी संसद में जनता के द्वारा चुने हुए ‘मिस्टर माननीय’ जनता के लिए ‘कानून’ की पहल करते हैं ताकि समाज में ‘समाजिकता’ पर आंच न आने पाए।
जरा सोचिए, अगर यही ‘माननीय’ गण पार्लियामेंट या असेम्बली के भीतर एक दूसरे के लिए ‘अमर्यादित’ शब्दों का प्रयोग करें तो समाज में, उनके निर्वाचन क्षेत्र में, या उनके खुद के परिवार में क्या संदेश जाएगा? हालांकि, भारतीय निर्वाचन प्रणाली में स्पेशल तरीके से माननीयों के लिए ‘नैतिक उत्थान’ का कोई कोर्स या परीक्षा का संचालन नहीं होता है। भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था की यह खूबसूरती है कि जनता को अपने-अपने ‘माननीयों’ को चुनने का अधिकार प्राप्त है। इसमें किसी प्रकार की न कोई जोर-जबरदस्ती है और न ही किसी को कोई सख्त आदेश दिया गया है।
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पार्लियामेंट और असेम्बली की कार्यवाही को देश देखता है। ऐसे में यही आशा की जाती है कि देश-प्रदेश के सबसे बड़े हाउस से ‘लोकहित’ की बातें लोकमान्य तरीके से की जाएंगी। पिछले साल ” तानाशाह, शर्म, दुर्व्यवहार, विश्वासघात, ड्रामा, पाखंड, जुमलाजीवी, अंट-शंट, करप्ट, नौटंकी, निकम्मा” इत्यादि शब्दों को लोकसभा और राज्यसभा में प्रयोग करने पर ‘असंसदीय’ माना गया। तो वहीं, ” बालबुद्धि, जयचंद, शकुनि, लॉलीपॉप, तानाशाही ” आदि शब्दों को दोनों सदनों में इस्तेमाल करने पर ‘अमर्यादित’ घोषित किया गया। उस नियमानुसार अब यदि इन शब्दों का किसी तरह सदन में प्रयोग हो भी जाता है तो उसे कार्यवाही का हिस्सा नहीं माना जाएगा।
असंसदीय शब्दों की सूची बनाने का क्या उद्देश्य होता है?
यह हर सांसद का कर्तव्य है कि वह सदन की कार्यवाही के दौरान जिन जिन शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं वो संसद के नियमों के दायरे में ही होना चाहिए। ऐसे शब्दों की सूची बनाने का उद्देश्य यही होता है कि कोई भी सांसद सदन में असंसदीय और अमर्यादित भाषा के इस्तेमाल से बचे। लोकसभा में स्पीकर यदि महसूस करता है कि माननीय सांसद गणों द्वारा बहस के दौरान कोई असंसदीय या अमर्यादित शब्दों का इस्तेमाल हो गया है तो स्पीकर महोदय ऐसे शब्दों को कार्यवाही से हटा सकते हैं। लोकसभा में स्पीकर और राज्यसभा में डिप्टी स्पीकर एक तरह से अभिभावक की भूमिका में होते हैं। ऐसे में इन दोनों लोगों की यह जिम्मेदारी है कि वे लोग सदन की कार्यवाही के दौरान ऐसे शब्दों को छांट कर शामिल न करें। बता दें कि लोकसभा सचिवालय ‘असंसदीय ‘ शब्दों के लिस्ट को एक पुस्तक के रूप में प्रकाशित करता है।
यही पुस्तक इन शब्दों की छंटाई में रेफरेंस का काम करती है। सबसे इंटरेस्टिंग बात यह है कि संसद में ‘माननीय गणों’ को विशेष अधिकार प्राप्त होता है। यदि किसी कारणवश उनके द्वारा ‘अनपार्लियामेंट्री लैंग्वेज’ का इस्तेमाल हो जाता है तो भी उनके खिलाफ न्यायालय में केस दायर नहीं हो सकता है। हालांकि, इनके असंसदीय शब्दों पर ध्यान देने के लेने के लिए माननीय स्पीकर और माननीय सभापति महोदय होतें हैं जो इन शब्दों को सदन की कार्यवाही से बाहर कर देते हैं।