न विकास, न रोजगार, न अच्छे दिन, हे भगवान यह कैसा रामराज्य?
क्या रामराज्य का सपना रह जाएगा अधूरा?
साल 2014 में सत्ता में आने से पहले वर्तमान सत्तारूढ़ सरकार ने ‘रामराज्य’ के तौर पर कई बड़े-बड़े वायदे के किए थे। जिसके तहत देश में कोई बेरोजगारी नहीं होगी , अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं, अच्छी शिक्षा, अच्छी सुरक्षा, और समग्र रूप से भारत की आबादी में सामान्य खुशी और संतोष होगा। रामराज्य की कहानी को बताकर भाजपा ने जनादेश का भरी समर्थन पाया था। लेकिन अफसोस की बात है कि यह जनादेश क्षुद्र स्वार्थों और हिंदू कट्टर वोटबैंक से खिलवाड़ कर रहा था, बिना किसी चिंता की देश पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा। देश की जनता ने इस तरह के वायदों का अनुभव पहले की सरकारों के दौरान भी किया है। जिसमें राजनीतिक पार्टियों ने बिना जनता की परवाह किए उनके सपनों को तोड़ा है।
प्रत्याशियों का चयन योग्यता के आधार पर नहीं, बल्कि जाति, धर्म के आधार पर होता है
हमारे देश में चुनावों के दौरान बड़ी पार्टियां अपने उम्मीदवारों का चयन क्षेत्रों के धार्मिक और जातिगत गणित को देखती हुए करती है। न कि इस मापदंड को रखते हुए कि उस क्षेत्र को बेहतर कौन बना सकता है। इस दौरान हर पार्टी का मकसद सिर्फ यही होता है कि वह चुनाव जीतकर गद्दी को हासिल करें। इसके अलावा जाति के आधार पर, धार्मिक भावनाओं के आधार पर यहां तक कि कुछ मामलों में, विभिन्न साधनों का उपयोग करके एकतरफा चुनाव जीता जाता है।
यही कारण है कि चुनाव के दौरान जिन भावनाओं के आधार पर उम्मीदवारों को चुना जाता है। जीतने के बाद वह उसी के अनुसार काम भी करते हैं। जबकि जिन वायदों को चुनाव के दौरान प्रतिनिधियों द्वारा कहा गया था, वह उसे गंभीरता से नहीं लेते हैं । उनकी पार्टी के घोषणापत्रों में निहित ये चुनावी वायदे बिना किसी नैतिक या कानूनी बाध्यता के एक चुनाव से दूसरे चुनाव में बदल दिए जाते हैं।
बाकी कामों के लिए सजा का प्रावधान है, घोषणापत्र को पूरा नहीं करने पर क्यों नहीं?
परिप्रेक्ष्य में, शेयरों को बेचने के लिए बाजारों में आने के समय को कंपनियां उन्हें जारी करती हैं जिसे प्रॉस्पेक्टिव कहा जाता है। यह दस्तावेज़ घोषणापत्र की तरह होते हैं। यह उन सभी चीजों को सूचीबद्ध करता है जो कंपनी आय से एकत्र किए गए धन के साथ करने का इरादा रखती है। यहां अंतर केवल इतना है कि अगर कंपनी पैसे का दुरुपयोग करती है, यानी कि अपने द्वारा किए गए ‘वायदे’ को लागू नहीं करती है, तो कंपनी, उसके प्रमोटर, निदेशक और प्रमुख अधिकारी भारी जुर्माना के साथ, जेल सहित सभी प्रकार के दीवानी और आपराधिक अभियोजन के लिए उत्तरदायी होते हैं।
इतना ही नहीं जिस व्यक्ति पर अपराध सिद्ध हो जाता है वह दोबारा किसी कंपनी का निदेशक नहीं बन सकता है। चुनाव से पहले, प्रत्येक राजनीतिक दल गद्दी को पाने के लिए और बड़े-बड़े वायदों का पूरा करने के लिए एक लोकाभुवाना घोषणापत्र बनने की दौड़ में शामिल हो जाती हैं। यह घोषणापत्र उस वक्त बहुत सारी सरकारी नीति का आधार बन जाता है। जो किसी भी पार्टी के लिए सरकार बनाने के लिए एक आसान रास्ता बना जाता है।
अभी हाल के ही सालों में ही आपने देखा होगा कि भाजपा ने लोकसभा चुनाव 2014 और 2019 के दौरान अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण, कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटाने के बारे में जिक्र किया था। जिसका परिणाम यह हुआ कि हिंदू दक्षिणपंथी वोट भाजपा के पक्ष में चले जाए। जबकि इसके दूसरी ओर रोजगार के मुद्दे को आसानी से भूला दिया गया। सरकार ने जिस दो करोड़ नौकरियों की बात कही थी वह कोरी साबित हुई। जबकि इसके इत्तर राम मंदिर का निर्माण और धारा 370 को भी हटा दिया गया। लेकिन जॉब के नाम पर पिछले साल जब परीक्षार्थियों ने विरोध प्रदर्शन किया तो रेलवे और एनटीपीसी की परीक्षा का समय निर्धारित किया गया।
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सिर्फ भाजपा की बात क्यों?
भाजपा की बात, इसलिए कि वे वर्तमान में सत्ता में हैं । इसलिए जरुरी है कि बात पहले उनकी ही होनी चाहिए। सत्ता मे आने से पहले भाजपा ने “पिछले 70 वर्षों में राष्ट्र के लिए की गई सभी बुराइयों को दूर करने” का वायदा किया था। इस बात को चुनावों को दौरान बार-बार दोहराया गया, लोगों को जहन में यह बात डाली गई कि 70 साल के दौरान देश में कुछ नहीं हुआ है। असली परिवर्तन अब होगा। अफसोस की बात तो यह कि जिन वायदों के साथ भाजपा सत्ता मे आई थी।
वे सभी चुनावी वायदें कोरे साबित हुए। बल्कि उन दक्षिणपंथी लोगों का सपना पूरा हो रहा है जो ‘हिंदू राष्ट्र चाहते थे। ध्यान देने वाली बात यह है कि सत्ता के भूखे लोग यह भूल गए है कि दक्षिणपंथी भी इंसान हैं। उनका भी परिवार है, जिसे उन्हें मूलभूत सुविधाएं देनी होती है। जिसके तहत उनके परिवार का खाना-पीने के साथ, अच्छी शिक्षा और अच्छी स्वास्थ्य सुविधा मिल पाए। सरकार को कम से कम उनका ख्याल रखना चाहिए था।
जनता को अशिक्षित रखा गया ताकि वह सवाल न उठा सके
भारत एक ऐसा देश है जहां जाति और धर्म के आधार पर राजनीति की जाती है। आजादी के समय मुसलमानों के मन में हल्का डर इसका बात का डाला गया कि वह स्वतंत्र भारत सुरक्षित नहीं है। क्योंकि भारत हिंदू बहुल देश है। जिसके परिपेक्ष्य में मुस्लिम बहुल देश बनाया गया। साल 1971 में पाकिस्तान का एक बार और विभाजन हुआ और बांग्लादेश का उदय हुआ। हिंदुओं के पाकिस्तान से हिंदू बहुल क्षेत्रों में जाने के साथ बड़े पैमाने पर पलायन हुआ। वही दूसरी ओर बड़ी संख्या में मुसलमानों ने पाकिस्तान की धार्मिक सुरक्षा के लिए हिंदू बहुसंख्यक भारत को छोड़ दिया।
काग्रेस को एक धर्मनिरपेक्ष देश के तौर पर मुस्लिमों को एक पहचान देनी चाहिए थी। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। जिसका नतीजा यह हुआ कि हिंदू बहुल देश में कई जातियां और उपजातियां की पहचान हुई। इतिहास इस बात का गवाह है कि निचली जातियों के साथ पिछली शताब्दियों में बहुत ही घटिया व्यवहार किया गया था। उन्हें मुख्यधारा के समाज से एकदम दूर रखा गया। जिसका नतीजा यह हुआ कि वह देश के किसी भी हिस्से में किसी भी क्षेत्र में आगे नहीं बढ़ पाएं।
आजादी के बाद, देश में धन, भोजन, स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा आदि सभी चीजों की भारी कमी थी। इसलिए इन निचली जातियों और जनजातियों, जिन्हें अब अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति कहा जाता है , को मुख्यधारा में लाने के लिए, अब सरकारी स्कूलों और सभी कॉलेजों में सीटें अनिवार्य रूप से आरक्षित कर दी गईं, और उनके लिए कम अंक में सरकारी नौकरियों में आने का प्रावधान लाया गया, ताकि उन्हें आगे आने में सक्षम बनाया जा सके।
कोटा(आरक्षण) मुख्यरुप से अस्थायी था और एक दशक या उससे अधिक समय तक चलने वाली इस व्यवस्था का अंत होना चाहिए था। अब ऐसा माना जा रहा है कि देश में पढ़ाई के लिए अनेक स्कूल, कॉलेज, यूनिर्वसिटी खुल गए है। इसके साथ ही नौकरियों भी बहुत हो गई है। जिसके मद्देनजर अब इस व्यवस्था का अंत हो जाना चाहिए। उस समय एक मुस्लिम आबादी और अनुसूचित जाति और जनजाति का राजनीतिक महत्व राष्ट्र के संस्थापकों में नहीं था। लेकिन अब देश आजाद हुए 73 साल हो गए हैं। अब जरुरी है कि जो आरक्षण दिया गया था उसका अंत होना चाहिए।
चूंकि कांग्रेस ने अनुसूचित जातियों और जनजातियों के उत्थान के लिए आरक्षण की मदद ली थी। लेकिन इसके दूसरी तरफ मुसलमानों को दरकिनार कर दिया, उनके उत्थान के लिए कुछ नहीं किया गया। सच्चर कमीशन की रिपोर्ट इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। जबकि देखा जाए तो मुस्लिम लंबे समय से कांग्रेस का वोट बैंक रहे हैं। जिसके बल पर उसने कई चुनाव जीते है। यहां तक की सबसे ज्यादा सीटों वाले यूपी में भी मुसलमानों की संख्या 19.3% है। जिसके बदौलत लंबे समय तक कांग्रेस की सरकार बनती रही है।
मुस्लिम वोटबैंक को हमेशा से सुरक्षित रखने की कोशिश की गई
मुस्लिम वोट बैंक को सुरक्षित रखने के लिए कांग्रेस ने मुस्लिम नेताओं के तौर मौलवियों का चयन किया। क्योंकि समुदाय के लोग इनकी बात को सुनते हैं उन्हें अपने समुदाय के भीतर महत्व और विश्वास देते थे। इनकी इन्हीं बातों के लिए राजनीतिक पार्टियों इन्हें महत्व देती है। लेकिन इसके दूसरी तरफ समर्थन करने वाली मुस्लिम आबादी को क्या मिला रहा है? एक इंसान की तरक्की का सबसे बड़े हथियार शिक्षा से भी उन्हें दूर रखा जा रहा है। इन्हीं मौलवियों द्वारा इन्हें बताया जाता है कि मदरसा शिक्षा ही इनके लिए सबसे बेहतर है। इनकी शिक्षा सिर्फ पवित्र कुरान तक ही सीमित है। जिसका नतीजा यह है कि बड़े पदों तक मुस्लिम समुदाय के बच्चे पहुंच नहीं पाएं। जिसका फलस्वरुप वह गरीबी में ही जीवनयापन कर रहे थे।
कांग्रेस के बाद यूपी में मुसलमानों के वोटबैंक पर 80 के दशक में समाजवादी पार्टी ने कब्जा कर लिया। वहीं दूसरी ओर मायावती की बहुजन समाजवादी पार्टी द्वारा अनुसूचित जाति के वोट पर कब्जा कर लिया गया। जिसका परिणाम यह हुआ कि सबसे ज्यादा सीटों वाले यूपी में धीरे-धीरे करके कांग्रेस वोटबैंक के मामले में विलुप्त होती गई। यह सब होने के साथ, और मुसलमानों को असुरक्षित महसूस कराने के लिए, उत्तर भारत के कस्बों में कभी-कभी दंगे भड़काए गए, जो बदले में हिंदुओं को असुरक्षित महसूस कराते थे – जिसने आरएसएस को हिंदुओं के रक्षक के रूप में महत्व दिया, पक्षपाती सरकार के खिलाफ जो कथित तौर पर मुसलमानों का समर्थन कर रहा था।
इस स्थिति में हर राजनीतिक पार्टी ने लोगों को खुश करने और अपने वोटबैंक को मजबूत करने के लिए अपने आप को जनता के सामने अपना सबसे बड़ा शुभचिंतक के रुप में पेश किया। जनता इन्हीं द्वारा बताई गई बातों के आधार पर लोगों अपना वोट दें और अशिक्षित, अपराधिक लोगों को अपना प्रतिनिधि चुन लेते हैं।
जनता को शिक्षित किया जाए
इसलिए जरुरी है कि जनता को शिक्षित किया जाए। बुनियादी शिक्षा के साथ, जीवनयापन करने के लिए कौशल युक्त शिक्षा दें। भले ही वह रोजागार के तौर पर पकोड़े ही तले, ऐसे में भी उन्हें कौशल दिया जाए। कॉलेज डिग्री के साथ-साथ प्रोफेशनल डिग्री दी जाए, ताकि वह डिग्री के अभाव में नौकरी से वंचित न रह जाए। थोड़ा समझदार बनें और नेताओं को झांसे में न आएं। ऐसा करने के लिए शिक्षा संस्थानों की संख्या, जनसंख्या वृद्धि से भी ज्यादा तेजी से बढ़नी चाहिए. (याद रखें – स्वतंत्रता के समय हमारे देश में मेडिकल, प्राथमिक शिक्षा और अन्य चीजों को भरी कमी थी।
इसने कुशल श्रमिकों के मामले में अर्थव्यवस्था को मजबूत किया होगा – दोनों स्वरोजगार और जो प्रमुख रूप से रोजगार योग्य थे (आज हम बड़े पैमाने पर बेरोजगार युवाओं की एक बड़ी युवा आबादी इसमें शामिल हो गई हैं), सभी स्तरों पर शिक्षक, स्वास्थ्य देखभाल (पर्याप्त चिकित्सा कर्मचारियों के साथ), खेती के तरीकों में सुधार, फिर से शिक्षा के कारण, बड़े पैमाने पर एक बेहतर और अधिक जिम्मेदार समाज का निर्माण किया जा सकता है।
यह किसी भी राजनीतिक दल के अनुकूल नहीं था, चाहे उनका आधिकारिक राजनीतिक झुकाव कुछ भी हो, क्योंकि खेल ‘राष्ट्र पहले’ या राष्ट्रीय विकास नहीं है, बल्कि किसी भी कीमत पर सत्ता को पाना है। राष्ट्र की सेवा तो अंत में आती है। हर पार्टी पहले अपना सुख देखती है। जनता अपना ध्यान स्वयं रख लेगी। आप सभी ने कुछ दिन पहले ही हमारे प्रिय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने को यह कहते सुना होगा कि “आत्मनिर्भर बनें”। स्थिति के हिसाब से अब जरुरी है कि जनता समय रहते समझ जाए और अपना रास्ता तय करें।
Translated By: Poonam Masih
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