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Haq Review: मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की सशक्त लड़ाई की कहानी

‘हक’ समाज के उन सवालों को उजागर करती है, जिनके जवाब मुश्किल हैं, लेकिन जरूरी भी। यह फिल्म बताती है कि न्याय की राह चाहे कितनी भी कठिन हो, हिम्मत और हक के सामने हर दीवार टूट सकती है।

Haq Review: एक महिला के हक की आवाज जिसने बदला देश का कानून

Haq Review: करीब चार दशक पहले आए बहुचर्चित शाहबानो केस ने मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों को लेकर देश में बड़ी बहस छेड़ दी थी। सुप्रीम कोर्ट ने तलाक के बाद गुजारा भत्ता देने के पक्ष में ऐतिहासिक फैसला सुनाया था। इसी फैसले से प्रेरित इस हफ्ते रिलीज हुई फिल्म ‘हक’ मुस्लिम महिलाओं के संवैधानिक हक की लड़ाई को बेहद असरदार तरीके से पेश करती है।

फिल्म की कहानी

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फिल्म की कहानी 1960 के दशक के उत्तर प्रदेश से शुरू होती है, जहाँ मशहूर वकील अहमद खान (इमरान हाशमी) शाजिया बानो (यामी गौतम धर) से निकाह कर सुखी जीवन बिता रहा होता है। दोनों के तीन बच्चे होते हैं और ज़िंदगी खुशहाल दिखती है। मगर एक दिन अहमद को अपनी पहली मोहब्बत सायरा (वर्तिका सिंह) के अकेले पड़ जाने की खबर मिलती है और वह बिना किसी जानकारी के उससे दूसरा निकाह कर लेता है। नई बेगम के आने से शाजिया की दुनिया उजड़ जाती है और वह बच्चों के साथ मायके लौट आती है। कुछ समय बाद अहमद उसे खर्च देना भी बंद कर देता है। जब शाजिया अपने और बच्चों के हक की मांग करती है तो वह उसे तीन तलाक देकर रिश्ता खत्म कर देता है। धार्मिक अदालतें उसे न्याय नहीं दे पातीं तो शाजिया अपने पिता की मदद से जिला अदालत में गुजारा भत्ते का केस दाखिल करती है। लंबी कानूनी लड़ाई जिला अदालत से होते हुए हाई कोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट पहुँचती है। अंत में सुप्रीम कोर्ट शाजिया के पक्ष में बड़ा फैसला सुनाता है, जो न सिर्फ उसके बल्कि लाखों मुस्लिम महिलाओं के जीवन में बदलाव की उम्मीद जगाता है।

हक’ मूवी रिव्‍यू

फिल्म में डायरेक्टर सुपर्ण वर्मा ने इस संवेदनशील विषय को बेहद संजीदगी से पेश किया है। रेशू नाथ की कहानी शुरुआत में एक खुशनुमा प्रेम कथा की तरह आगे बढ़ती है, लेकिन इंटरवल के बाद कोर्टरूम ड्रामा भावनाओं और तर्कों के बीच दर्शकों को बांधे रखता है। सिनेमैटोग्रफी, डायलॉग और बैकग्राउंड स्कोर फिल्म को और प्रभावी बनाते हैं।

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अभिनय की बात करें

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अभिनय की बात करें तो इमरान हाशमी ने लंबे समय बाद दमदार परफॉर्मेंस दी है। वहीं यामी गौतम धर ने एक पीड़ित मगर हिम्मत से खड़ी रहने वाली महिला के किरदार को पूरे दर्द और ताकत के साथ जिया है।

‘हक’ सिर्फ एक फिल्म नहीं

अंत में कहा जा सकता है कि ‘हक’ सिर्फ एक फिल्म नहीं, बल्कि उन महिलाओं की आवाज है जो समाज और व्यवस्था के बीच अपने अधिकार के लिए संघर्ष करती रही हैं। यह फिल्म दर्शकों को सोचने पर मजबूर करती है कि न्याय की राह चाहे कितनी भी लंबी क्यों न हो हक कभी खत्म नहीं होता।

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