महामारी में वॉरियर्स की तरह खड़े हैं सरकारी कर्मचारी, फिर निजीकरण क्यों ?
सामाजिक न्याय की दिशा में कमी आएगी
कोरोना के दौरान कई बार प्रधानमंत्री ने देश को संबोधित किया। संबोधन में कोरोना से बचने को लेकर आत्मनिर्भर भारत बनने तक की बात का जिक्र किया। लेकिन आत्मनिर्भर भारत के साथ-साथ कई क्षेत्रों में निजीकरण की बात भी कही जाने लगी। खबरों की मानें तो 2023-2024 में कोल इंडिया और रेलवे में निजी क्षेत्र की भागीदारी को बढ़ावा दिया जाएगा।
अहम बिंदु
– कोरोना काल में निजीकरण की बात क्या सरकार के लिए अवसर है
– कोल इंडिया का निजीकरण क्यों जबकि 1972 में राष्ट्रीकरण किया गया था
– 109 ट्रेनों का निजीकरण, तेजस ट्रेन का हाल
– क्या निजीकरण के दौरान सिर्फ भारतीय कंपनियां का ही हिस्सा होगा, या विदेशी भी शामिल होंगी
– निजीकरण का असर
कोरोना काल में अपने एक संबोधन के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने आपदा को अवसर में बदलने की बात कही थी। इसके बाद से ही आपदा को अवसर में तब्दील करते हुए रेलवे और कोल इंडिया को निजी क्षेत्र में बदलने की कवायत शुरु हो गई। मई के महीने में केंद्रीय कोयला मंत्री प्रह्लाद जोशी का कहना था कि कोल इंडिया लिमिटेड को वित्तीय वर्ष 2023-2024 तक एक मिलियन टन के लक्ष्य को पूरा करने की राह आसान होगी। इसके साथ ही कोल इंडिया के पास यह एक सुनहरा मौका है जब कंपनियां नई खदानों को खोलगी, जिसके तहत कोयले का उत्पादन भी ज्यादा होगा। वहीं रेलवे के मामले में रेलवे बोर्ड के चैयरमेन का कहना है कि अप्रैल 2023 में निजी रेल सेवाएं शुरु हो जाएगी। जिसके तहत 109 रुटों पर उन्नत रेलगाड़ियां(रेक) शुरु की जानी हैं।
साल 1971 से पहले कोल इंडिया निजी हाथों की ही कठपुतली थी। 1 मई 1972 को कोयला खानों का राष्ट्रीयकरण किया गया। इसके पहले कोकिंग कोयला खान (आपातकाल प्रावधान) अधिनियम 1971 सरकार द्वारा 16 अक्टूबर 1971 को लागू किया गया, जिसके तहत इस्को टिस्को और डीवीसी के कैप्टिव खानों के अलावा भारत सरकार ने सभी 226 कोकिंग कोयला खानों का प्रबंधन अपने हाथ में ले लिया। 31 जनवरी 1973 को कोयला खान(प्रबंधन का हस्तांतरण) अध्यादेश -1973 लागू कर केंद्रीय सरकार ने सभी 711 नॉन कोकिंग कोयला खानों का प्रबंधन अपने हाथ में ले लिया। अब सवाल यह है कि जब कोल इंडिया को पहले ही निजी से पब्लिक क्षेत्र मे तब्दील किया गया तो अब फिर इसे निजी हाथों में देने की बात क्यों कही जा रही है।
एयरपोर्ट के निजीकरण के बाद अब ट्रेनों का भी निजीकरण किया जा रहा है। इसके तहत ट्रेन चलाने के लिए निजी कंपनियों को आमंत्रित किया गया है। मतलब साफ है ट्रेनों का रख रखाव अब रेलवे के अंतर्गत नहीं ब्लकि निजी कंपनियों के हाथ में होगा। हर ट्रेन में लगभग 16 कोच होगें। इतनी औसत स्पीड 160 किलोमीटर प्रतिघंटा होगी। सरकार का यह भी कहना है कि इन आधुनियों ट्रेनों को ‘मेक इन इंडिया’ के तहत भारत में ही बनाया जाएगा। पिछले सप्ताह जैसे ही इस बारे में ऐलान किया गया वैसे ही ट्विटर पर एसी एसटी ओबीसी कैटेगरी के लिए चिंता व्यक्त की जाने लगी। लोगों का कहना है था कि यह सारी योजनाएं आरक्षण विरोधी है। इस बारे में राज्यसभा सांसद रवि प्रकाश वर्मा का कहना है कि इस प्रकार की प्रक्रिया के तहत किसी एक व्यक्ति को ही आगे बढ़ाने की कोशिश की जा रही है। आरक्षण के तहत देश की 72 हजार जातियों के साथ सामाजिक न्याय की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था। क्योंकि, जैसी स्थिति देश में थी वहां लोगों से काम तो लिया जा रहा था लेकिन सामाजिक तौर पर उनको स्वीकार नहीं किया जा रहा था। लेकिन आरक्षण ही एक रास्ता था जिसने लोगों के लिए समानता का अवसर प्रदान किया था। अब अगर ये सारी चीजें होगी तो हम दोबारा से पीछे की ओर जा रहे हैं।
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रेलवे की तरह ही कोल इंडिया में निजीकरण को लेकर विरोध प्रदर्शन किया जा रहा है। दो जुलाई से तीन दिवसीय हड़ताल का आह्वान किया गया। जिसके अंतर्गत कोयला का उत्पादन पूरी तरह से ठप्प रहा है। कई मजदूर संघ ने इसमें हिस्सा लिया। मजदूर संघ सरकार पर निजीकरण वापस लेना का दवाब डाल रहे हैं।
भारतीय मजदूर संघ पश्चिम बंगाल ईकाई के प्रदेश मंत्री जयनाथ चौबे का कहना है कि कर्मिशियल माइनिंग के तहत दोबारा से 1971 से पहले वाली स्थिति को लाया जा रहा है। भले ही सरकार आज कह रही है कि कर्मिशियल माइनिंग के तहत कोई नुकसान नहीं होगा लेकिन ऐसा नहीं है। जैसे ही कोल माइनंस का निजीकरण कर किसी एक हाथ में सारा पावर दे दिया जाएगा वैसे ही मजदूरों की सेफ्टी कुछ नहीं रह जाएगी। लॉकडाउन के दौरान तो यह बात साबित हो चुकी है। इस वक्त किसी भी प्राइवेट कंपनी ने अपने मजदूरों को कोई सोशल सिक्यूरेटी नहीं दी थी। जबकि ऐसा देखा गया कि पब्लिक सेक्टर में मजदूरों ने अपने एकदिन की सैलरी भी भारत सरकार को दी थी। जब स्थिति सबसे ज्यादा खराब थी तो सरकारी कर्मचारी ही वॉरियर्स की तरह खड़े रहे हैं। इसलिए सरकार को पब्लिक प्रॉपटी को निजी हाथो में नहीं देना चाहिए। निजीकरण के प्रभाव की बात करते हुए चौबे कहते हैं कि सरकारी कंपनियों हमेशा सरकार के नियमों अनुसार वैज्ञानिक तरीके से काम करती है। जबकि प्राइवेट कंपनियों हमेशा अपना फायदा देखती हैं। वहां कोयला और जंगल की बर्बादी होगी। सरकार का कहना है कि वह 50 हजार करोड़ का मुनाफा करेगी। लेकिन देखा जाए तो सीआईए ने 64 हजार करोड़ रुपए सरकार को दिया है।
सिक्योरिटी की बात करते हुए चौबे कहते हैं कि एक सरकारी कंपनी अपने मजदूर को कई तरह की सिक्योरिटी देती है। वह अपने कर्मचारियों को रहने से लेकर स्वास्थ्य सुविधा बोनस वैगरा देती है। लेकिन प्राइवेट कंपनियों द्वारा ऐसा कुछ भी नहीं किया जाता है।
रेलवे निजीकरण की जब भी बात होती है तो तेजस ट्रेन का उदाहरण बड़े जोरों शोरों से दिया जाता है। पिछले साल यह ट्रेन दिल्ली से लखनऊ के लिए चलाई गई थी। यह पूरी तरह से आधुनिक उपकरणों के साथ-साथ सुविधाओं से लैस है। लेकिन ट्रेन चलने के कुछ समय के बाद से ही इसे लेकर शिकायतें आने लगी। ट्रेन में काम करने वाली स्टॉफ का कहना था कि उनके साथ बदतमीजी की जाती थी इसके साथ ही तय समय से ज्यादा उनसे लगभग 18 घंटे तक काम कराया जाता है।
रेलवे और कोल इंडिया के निजीकरण में फायदा और नुकसान
नुकसान
– निजीकरण के बाद से ही कर्मचारियों की सेफ्टी और सिक्योरिटी कम होगी
– अनुकंपा वाली नौकरियों पर ग्रहण लग सकता है क्योंकि अभी तक तो कोल इंडिया में नौकरी के दौरान मृत्यु होने पर अनुकंपा के तहत परिवार के सदस्य को नौकरी दी जाती है ।
– सामाजिक न्याय की दिशा में कमी आएगी ।
– किसी एक व्यक्ति का एकाधिकार बढ़ेगा, एकाधिकार बढ़ेगा तो मनमर्जी भी बढ़ेगी।
फायदे
– रेलवे का कहना है कि निजीकरण के बाद से लेट लतीफी से छुटकारा मिलेगा।
– ट्रेन का रख रखाव का सारा जिम्मा निजी हाथों में होगा तो साफ सफाई बराबर बनी रहेगी।
– सरकार द्वारा सबसे अहम बात यह कही गई है कि इन ट्रेनों का काम मेक इन इंडिया के तहत भारत में ही किया जाएगा। जिससे भारत की अर्थव्यवस्थ मजबूत होगी।
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