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Phanishwar Nath Renu :आखिर कौन थे भारतीय साहित्यकार फणीश्र्वर नाथ रेणु? यहाँ पढ़िए उनकी ‘Inspiring’कहानी

Phanishwar Nath Renu : कहानी जन के कवि फणीश्वर नाथ रेणु की, बिहार मे जन्मे इस साहित्यकार ने कैसे  किया दिलों पर राज


Highlights:

. फणीश्वर नाथ रेणु का जन्म बिहार के अररिया जिले में हुआ था

. साहित्यकार को उनके पहले उपन्यास मैला आँचल के लिये सर्वाधिक याद किया जाता है

. राज कपूर और वहिदा रहमान की फिल्म ‘तीसरी मंजिल’ रेणु जी की एक किताब पर आधारित है

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Birthday Special Phanishwar Nath Renu : भारत कला और कवियों का देश है। एक ऐसा देश जहाँ की हर गली, हर कूचे में किस्से – कहानियाँ हैं। इन्हें पिरोने वालें हैं वो हज़ारों मन जो इन्हीं गलियों और कूचों में पले-बढ़े हैं, अपनी कल्पना को सच्चाई में बदलना जिन्हें बखूबी आता है, जिनका शब्दों के श्रृंगार से खेलना पेशा ही नहीं जुनून है। जी हाँ, हम बात कर रहें हैं लेखकों की, उपन्यासकारों की, कवियों की और साहित्यकारों की।( Writers) ये हमारे समाज के कुछ ऐसे लोग हैं

जिन्होंने इन किस्से – कहानियों के ईर्द-गिर्द न ही सिर्फ अपनी दुनिया समेटी है बल्कि जन – जन के आवाज़ को युगों – युगों तक रौशन किया है। आज हम एक ऐसे ही साहित्यकार की कहानी आप तक लेकर आयें हैं जिनकी रचनायें तो आपको प्रलोभित करेंगी ही इसके साथ ही आपके जीवन जीने का नज़रिया ही बदल देगी।

तो चलिये शुरू करते हैं:

कहानी है एक ऐसे साहित्यकार की जिन्होंने अपनी लेखिनी में पात्रों की सोच को घटनाओं से अधिक महत्व दिया जिन्होंने आम जन की ज़िंदगी को बड़े साधारण और सरल तरीके से अपनी रचनाओं के माध्यम से जिया। उस महान साहित्यकार का नाम है फणीश्र्वर नाथ रेणु। उनके जन्मदिवस के मौकें पर हम आपको लेकर चलते हैं रेणु के शब्दों की दुनिया में जो ज्ञान और रौशनी से भरी हुई है।

4 मार्च 1921 में जन्में फणीश्र्वर नाथ रेणु को उनके पहले उपन्यास मैला आँचल (Maila Aanchal) के लिये सबसे अधिक याद किया जाता है। इस उपन्यास को हिंदी का सबसे श्रेष्ठ उपन्यास कहा जाता है। बिहार के अररिया जिले में जन्में लेखक ने अपनी इंटरमीडिएट की पढ़ाई 1942 में काशी हिंन्दू विश्वविद्यालय ( Banaras Hindu University) से की और उसके बाद वो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। इनकी शिक्षा भारत और नेपाल में हुई।

नेपाल की सीमा से सटे उत्तर-पूर्वी बिहार के ग्रामीण प्ररपेक्ष में पले-बढ़े फणीश्र्वर नाथ का वो प्रगाढ़ जुड़ाव ही था जिसने दुनिया को मैला-आँचल जैसा प्रतिश्र्ठित उपन्यास दिया। ( India-Nepal)

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रेणु की कहानियों में जन – जीवन के हरेक रंग, सुर, लय, ताल को आकर्षित करने की वो क्षमता है जिसने आम जन को बाँध कर रखा है।

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रेणु जी की पकड़ अपने शब्दों और अर्थों पर कितनी अधिक थी इसका पता उनके एक उपन्यास ‘परती परिकथा’ ( Parti-Parikatha) से लगाया जा सकता है। इस उपन्यास में रेणु जी ने शुरू में एक दृश्य रचा है जिसमें आधी रात में चिड़ियों के आवाज़ को शब्द और अर्थ देने का प्रयास किया गया है। रात गहरी है और नर और मादा चिड़ियों के बीच सम्वाद चल रहा है। ‘ये हे ये’ जैसे कह रहा हो जगी हो कि सो गई। फिर मादा चिड़िया की अलसाई नींद में कनमुनाती आवाज़ – ‘एह, एह, ये, ये’ – जगी ही तो हूँ।

फिर से नर की बोली ‘एह, एह, एह, एह’ जैसे कह रहा हो ‘हाँ, जगी ही रहना’। इस रचना ने हिंदी साहित्य को कल्पना से भर दिया जिसमें ताज़गी और जीवन के रस छिपें हैं।

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बिहार (Bihar) से सम्बंध रखने वाले रेणु का समय प्रेमचंद के ठीक बाद का था। भारत आज़ाद हो चुका था और भारत के साथ-साथ आज़ाद हुई थीं आम जन की सोच, जीने की शैली और बहुत कुछ। भाषा और शब्दों के प्रयोग में फँसते नये भारत की लेखिनी को आकार देने वाले फणीश्र्वर नाथ रेणु ही हैं। वो रेणु ही हैं जिन्होंने आज़ादी के बाद भारत के दम तोड़ते हुये गाँवों की पुकार सुनी और फिर कहानियाँ लिख डाली आम जन के दर्द की, भूख से कराहते पेटों की, जीवन के मूलभूत ज़रूरतों को पाने के सपनों की और एक नये हिंदुस्तान की।

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रेणु जी के उपन्यासों में मैला आँचल, परती परीकथा, जुलूस, दीर्घतपा, कितने चौराहे, कलंक मुक्ति, पलटू बाबू रोड सम्मलित हैं। कथा संग्रह की बात करें तो ठुमरी, एक आदिम रात्री की महक, अग्निखोर, एक श्रावणी दोपहर की धूप, अच्छे आदमी का हिंदी साहित्य में खूब दबदबा है। रेणु जी की कहानियाँ आज भी सुनी सुनाई जाती हैं। जिनमें मारे गये गुलफाम,( हिंदी सिनेमा में इस कहानी पर वहीदा रहमान ( Wahida Rehman) और राजकपूर ( RajKapoor) के साथ फिल्म बनाई गई है तीसरी मंजिल( Teesari Manzil) एक आदिम रात्री की महक, लाल पान की बेगम, पंच लाइट, तबे एकला चलो ले, ठेस, सम्वदिया हैं।

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रेणु जी को अपने प्रथम उपन्यास मैला आँचल के लिये पद्मश्री ( Padmshree) से सम्मानित किया गया है। इसके अलावे रेणु जी को भारत रत्न ( Bharat Ratna) देने की भी माँग उठ रही है।

रेणु जी ने 11 अप्रैल 1977 को अपनी लेखिनी और इस संसार को अलविदा कह दिया। और छोड़ गये अपने पीछे उन हज़ारों आत्माओं को जो आज भी इनके लिखे शब्दों को अपना यथार्थ मानते हैं, आज भी रेणु जी के साहित्यिक रौशनी के तले अपना जीवन गुजार रहें हैं।

देश को नाज है ऐसी छवी पर जिसने शब्दों के मायाजाल से भारतवर्ष को गौरवान्वित किया है।

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